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Thursday, September 3, 2009

कहते तो सही हो, डाक्टर अनुराग...!!!

डाक्टर अनुराग सही कहते हैं, दुखों के जेरोक्स मशीन की वसीयत औरतों के नाम न सही, लेकिन उस वसीयत की एक-एक फोटोकॉपी हरेक औरत के पास है.
बुलंदशहर के पास एक कसबे जेवर में जाना हुआ जहाँ एक दोस्त गायनेकोलोगिस्ट है. हैरानि होती रही दिन भर ओपीडी में बैठे हुए. उम्र 20 साल, नौ महीने का गर्भ, मल्टी ग्राविडा, एचबी सिर्फ 5 ग्राम और इंशाअल्लाह रोजे रखे हुए हैं. डाक्टर कहती है रोजा नहीं रखो, मर जाओगी. साथ आयी सास कहती है-यों न होने का डाक्टर साहिब. साल भहर में एक दफा तो रमदान का महीना आवे है. सालभर खाना ही होवे फिर. सही है, सास-बहु दोनों के पास पक्के तौर पर दुखों के जेरोक्स कापी है.
और यह जो औरत आज दाखिल हुयी है, इसके पास तो वसीयत की रजिस्ट्री भी है. उम्र कोई बीस साल, पेशा मजदूरी. पहला बच्चा, झुग्गी में ही किसी दाईनुमा औरत ने उस वसीयत की कापी इस औरत को भी सौंप कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी.
बच्चा तो पैदा करवा दिया पर कुछ हिस्सा भीतर छूट गया जिसे हम मेडिकल वाले रिटेनड प्लेसेंटा कहते हैं. सड़क पर मजदूरी करने वाला शौहर हेवी ब्लीडिंग और कन्वेलसेंस की हालत में लेकर अस्पताल पहुंचा. खुद भी बदहवासी में. मरीज की हालत खुद ही गरीबी बयां कर रही थी और उसके शौहर ही हालत उसक मजबूरी और बेबसी की. उसके पास एक भी पैसा नहं था इलाज़ के लिए. कुछ घंटों पहले पैदा हुयी नन्ही सी जान को हाथों में लिए वह डाक्टर संजना के सामने उस औरत को किसी भी तरह बचा लेने के लिए गिडगिडा रहा था.
ऐसे मरीज भी शायद ऐसे ही कमजोर दिल डाक्टरों का पता भगवान् से ही पूछ कर आते हैं, जो हाथ जोड़कर नीच फर्श पर बैठ जाने वाले गरीब मरीज को देखकर डिग्री लेते हुए खाई 'हिप्पोक्रेटिक ओथ' को हनुमान चालिषा की तरह दोहराने लग जाते हैं.
मै देखता हूँ डाक्टर संजना बेबसी की जुबां पढ़ रही है. जल्दी से ब्लड सैम्पल लिया गया. जांच रिपोर्ट आ गयी है. टायफायड, मलेरिया पाजिटिव और एचबी सिर्फ चार ग्राम. घंटे भर की मेहनत के बाद मरीज़ औरत कुछ शांत लगी. हम लोग ओपीडी के बाद चाय पीने बैठे ही हैं कि फिमेल वार्ड की नर्स भागी आयी-डाक्टर साहिब, पांच नंबर वाली कि पल्स नहीं मिल रही. भागकर गए तब तक मौत बाज़ी ले जा चुकी थी. नन्हीं जान ने मां के शरीर की छुअन भी नहीं महसूस की थी और मां बच्ची को सीने से भी नहीं लगा सकी. माहौल ग़मगीन पहले ही था कि अचानक किसी पुरानी हिंदी फिल्म में बाप का किरदार निभाने वाले नासीर खान जैसा गरीब बूढा कमरे में दाखिल हुआ और दुधमुन्हीं बच्ची को चूमते हुए सिसकते आदमी के सामने हाथ खोलकर खडा हो गया. कहीं से कुछ हज़ार रूपये मांगकर लाया था उसका बाप. 'बेटा, देर हो गयी क्या आने में मुझे?'

Sunday, August 16, 2009

इरशाद आजकल...!!!

बात शायद 1997 की सर्दियों की है. चंडीगढ़ में जनसत्ता अखबार के दफ्तर में चाय की चुस्कियों के दौरान जब इरशाद ने बताया कि वह बॉम्बे जा रहा है फिल्मों के लिए लिखने के लिए, तो मैंने मजाक में कहा-'हाँ जा यार, हम भी फिल्म इंडस्ट्री में किसी को जानने लगेंगे. फिर तेरे साथ फोटो खिंचाकर खुश होंगे. पर साले तू कहीं हमने पहचानने से भी इनकार मत कर देना'. इरशाद ने पुख्ता आवाज़ में कहा था-'तुझे ऐसा लगता है?' मैंने क्या कहा था ये तो मुझे ठीक से याद नहीं, लेकिन इरशाद ने यह कहा था तेरे नाम से बुलाकर मिलूँगा.
ऐसा हुआ भी. कल मुझे जब एक पुराने साथी का फोन आया कि इरशाद आया हुआ है चंडीगढ़. कल आ जाना एक फंक्शन में, वहीँ मिलेंगे. जब मैं वहाँ पहुंचा तब तक इरशाद पहुंचा नहीं था. हम लोग बाहर ही खड़े होकर उसका इंतज़ार करने लगे. एक घंटा लेट था इरशाद. हम बातें करने लगे की इन लोगों के साथ यह समस्या होती ही है, देर से आने की. खैर, इरशाद की गाडी दूर सड़क पर ही रुक गयी. उसमें से इरशाद और इम्तिआज़ निकले और पैदल चलते हुए आने लगे. हमें देखते ही इरशाद तेजी से आया और दूर से ही बोला-'और रवि, क्या हाल है?' इरशाद ने बारह साल पहले कही बात को सिद्ध कर दिया.
इसके बाद करीब एक घंटा साथ रहे और ढेर सी बातें की. बाकी दोस्तों के साथ-साथ मैंने भी कोशिश कि हम दोनों के बीच कहीं वह दीवार मिल जाए जिससे मैं महसूस कर सकूं की मेरे साथ बैठा इरशाद अब 'जब वी मेट' और 'लव आजकल' जैसी कामयाब फिल्मों का गीतकार इरशाद कामिल है और उसके साथ इन फिल्मों का डायरेक्टर इम्तिआज़ अली है. बहुत कोशिशों के बाद मुझे मानना ही पड़ा कि इरशाद आज भी कल वाला वही इरशाद है जिसके खाते से हम चाय मंगवा कर पीते रहते थे और बाद में इरशाद केन्टीन वाले कौशल के साथ हिसाब को लेकर बड़ी तमीज के साथ बहस करता था.
और इरशाद ने बड़ी साफ़गोई से यह भी बता दिया कि वह पहले भी यहाँ आता रहा है, लेकिन दोस्तों से मिलने का वक़्त नहीं निकाल पाया. हाँ, अपने घर मलेरकोटला जरूर गया. 'चमेली' और 'जब वी मेट' के बाद बाद भी और अब 'लव आजकल' की कामयाबी के बाद भी. और उससे मिलने के बाद मुझे लगा कि कुछ लोग कभी नहीं बदलते. कल भी वही थे, और आज भी. मैंने उससे पूछा यहाँ के दोस्तों को याद क्यों रखा हुआ है? तो इरशाद का जवाब था-जो गीत सुन रहे हो न, उनके लिए शब्दों के झोली यहीं से भरता हूँ.
खैर जाते जाते इरशाद ने मुझे यह भी बताया कि जनसत्ता अखबार से मिला कुल 327 रुपये का आखिरी चेक फ्रेम करवा कर रखा हुआ है. और मैंने भी उसे यह बता ही दिया कि केन्टीन वाले कौशल ने आज भी तुम्हारा 21 रूपये का हिसाब रखा हुआ है. (उसी चाय का बिल जो हम दोस्तों ने पी थी जब एक नाटक की कवरेज़ के लिए इरशाद टैगोर थिएटर गया हुआ था.)

Wednesday, June 24, 2009

मेरा दिल भी जिद पर अड़ा है किसी बच्चे की तरह...

मैं उसे अब तक कम ही जान पाया था, कल रात के बाद मुझे उसका एक अलग रूप नज़र आ रहा है। पता नहीं पिछले बारह साल तक मैंने उसमें एक जिद्दी बच्चे को क्यों नहीं देखा। हाँ, मैं राकेश की ही बात कर रहा हूँ। कल शाम ऑफिस से जल्दी काम निपटा लेने के बाद जब मैं उसके दफ्तर पहुंचा तो वह 'यूट्यूब' पर नूरजहाँ का गया 'लो फिर बसंत आया' ढूँढने में व्यस्त था। हालांकि उसने मुझे लम्बी सैर करने के लिए बुलाया था जो हम दोनों की बारह के पुरानी दोस्ती का एक सूत्र है.
उन दिनों जब हम में से किसी पर भी परिवार की जिम्मेदारी का अहसास हावी नहीं हुआ था और देर रात तक घर से बाहर रहने पर कोई जवाब नहीं देना होता था, तब राकेश और मैंने कई साल तक चंडीगढ़ में सुखना झील के किनारे-किनारे आधी रात बीते तक लम्बी सैर की हैं। मैं उन दिनों जनसत्ता अखबार में रिपोर्टर था और राकेश दिव्य हिमाचल नाम के अखबार में। मेरा दफ्तर उसके दफ्तर और घर के बीच में था. राकेश क्राईम रिपोर्टर था और डाक्टरी का ठप्पा लगा होने के कारण मैं 'हेल्थ कोरेस्पोंडेंट'. आधी रात को राकेश मेरे दफ्तर पहुंचता.मेरे दफ्तर की कनटीन में 'थाली' खा लेने के बाद हम दोनों अपने स्कूटरों पर लम्बी सैर को निकलते थे. झील पर जाकर स्कूटर एक कोने में फेंकते और झील के किनारे किनारे अँधेरे में गीत-गज़लें गाते-गुनगुनाते करीब पांच किलोमीटर की सैर करते. इस दौरान हम दिन भर की घटनाओं का जिक्र करते और भविष्य के लिए देखे जा रहे कुछ सपनों का भी. उनमें से एक कार खरीदने लायक पैसा जमा कर लेने का जिक्र रोज़ होता था. कई बार ऐसा भी होता था कि राकेश आते आते रास्ते में ही दारु का दौर पूरा करके आता था. ऐसे रोज़ राकेश की बातों में कुछ गुस्सा भी दिखता, लेकिन अगले ही पल वह खुद को रोक भी लेता. ऐसे ही पीने के बाद शुरू हुई चर्चा में एक अधकही सी कहानी भी शामिल हुई, जिसके बारे में तफसील देने से पहले ही सैर खत्म हो गयी.
उसके बाद राकेश की मित्र-मंडली में कुछ और रिपोर्टर शामिल हुए जो पीने-पिलाने के शौकीन थे. नहीं पीने वालों में होने के कारण हम दोनों के रोज़ मिलने के कारण कम होने लगे और सैर के बहाने भी. नौकरी करते करते कब दस साल बीते, पता ही नहीं चला.
पिछले कुछ महीनों से राकेश और मेरा सैर का बहाना फिर से बनने लगा तो मैंने पाया कि उसने कुछ जयादा ही पीनी शुरू कर दी थी. लगभग रोज़. और पिछले एक महीने से तो ऐसा होने लगा था कि सैर के बाद उसने मेरी कार में बैठकर पीने के लिए कहा. मेरे लिए वह कोका कोला की बड़ी बोतल लाता. अकेले पीने की उसकी इच्छा को पता नहीं क्यों मैं लगातार नोट करता आ रहा था. कल रात को सैर करने के बाद जब राकेश ने पीने के इच्छा जताई तो मैंने कार में बैठकर पीने की बजाय घर चलने को कहा. गर्मी से बचने के लिए पत्नी और बच्चा शिमला गए हुए हैं. ऐसे में राकेश भी मान गया. शायद घर के माहौल का असर ही था कि पीने के दौरान राकेश की सुई घर-परिवार की जिम्मेदारी पर आ टिकी. उसने कहा कि उसे लग रहा है पिछले दस साल का उसके पास कोई रिकार्ड नहीं है कि कैसे यह वक्त बीत गया था. घर परिवार की जिम्मेदारी ढोते. दिन रात घर परिवार की सुख-सुविधाओं के बारे में सोचते करते. इस दौरान खुद के लिए सोचने का भी वक्त नहीं मिला. और यह सब करने के दौरान ही उसे लगने लगा है कि खुद उसके लिए कुछ नहीं हो रहा. ऐसे में एक जिद्दी बच्चे की तरह उसने मुझसे कहा-'मैं क्यों सोचूँ किसी के लिए॥मैं तो पीयूँगा??'
(शायद हम सब में एक बच्चा छिपा बैठा है कहीं.)

Monday, June 22, 2009

किवें ऐ बाई हरमन सिद्धू....!!!

वैसे तो 23 साल किसी को भूल जाने के लिए कम नहीं होते. और ऐसे किसी इंसान को भूलने के लिए जिसे आप ठीक से जानते भी न हों. लेकिन पता नहीं क्यों हरमन सिद्धू के मामले में मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ. हरमन को मैं कल पूरे 23 साल बाद मिला. हरमन और मैं पहली बार 10+1 में पहले दिन चंडीगढ़ के सरकारी कालेज में मिले थे. कितने दिन साथ साथ बैठे इसकी ठीक ठीक याद मुझे नहीं है, लेकिन पिछले हफ्ते नेट्वर्किंग साईट 'फेसबुक' में जब मैंने उसे देखा तो कालेज में पहले दिन की यादें ताजा हो गयी. याद आया कैसे छोटे से स्कूल से निकलकर पहले दिन इतने बड़े कालेज में जाना अपने ही शहर दिल अजनबी हो जाने का अहसास दे रहा था. पुराने दोस्तों में से किसी को ढूढती निगाहें इधर-उधर घूम रही थी. नोटिस बोर्ड पर क्लास का अता-पता लगाकर पहुंचा 'एलटी-1' यानी 'लेक्चर थिएटर-1'.
पहली बार सिनेमा हाल जैसी सीढियों जैसी क्लास में लम्बे-लम्बे बेंच पर बैठे मेरे जैसे नए लोग. आगे से तीसरी लाइन में बाएँ तरफ जाकर बैठ गया. सुबह आठ बजकर दस मिनट पर पहला लेक्चर था केमिस्ट्री का. लेक्चरर डाक्टर अत्तर सिंह अरोरा अभी तक पहुंचे नहीं थे. सीट पर बैठकर क्लास का जायजा लिया. बाएँ तरफ लड़कियां बैठी थी और अधिकतर लड़के दाईं तरफ बैठे थे. बाईं तरफ दीवार में एक बड़ी सी खिड़की खुलती थी जहाँ से बाहर एक छोटा सा मैदान था जिसके किनारे किनारे पीले रंग के फूल झूम रहे थे. बरसात का एक दौर सुबह ही गुजर चुका था.
इसके बाद मैं वापस क्लास में लौटा. मेरे साथ बाईं तरफ जो लड़का बैठा था उससे मैंने हाथ मिलाया. 'रविंदर', 'हरमन'!!! बस इतनी याद ही है मुझे उस दिन की और हरमन से पहली मुलाक़ात की. इसके बाद एक दिन और याद है जब कालेज की कैंटीन को बदल कर 'न्यू ब्लाक' के पास चली गयी थी और वहीँ एक दिन चाय लेने के लिए काउंटर की लाइन में खड़े हरमन का चेहरा मुझे याद है. उसके बाद वह साल और उसके अगला साल कहाँ गुजरा मुझे याद नहीं. बस यह याद है कि कालेज कि बिल्डिंग और क्रिकेट मैदान के बीच किनारे पर खड़े नीम्बू-पानी वाली रेहड़ी वाले के पास से गुजरने वाली कालेज की एकमात्र 'जींस वाली लड़की' को देखने के लिए हरमन मुझसे भी पहले पहुंचा होता था. हमारे कालेज हमारे एक ही लड़की थी उन दिनों जो जींस पहनने की हिम्मत करती थी. वैसे तो हमारा कालेज उन दिनों 'फार बायज' था लेकिन बी.काम कोर्स में लड़कियां भी थी. उन्हीं लड़कियों में से एक थी वो जींस वाली. उसका नाम हमें तो पता नहीं था लेकिन सीनियर्स से सुनकर पता चला था कि उसका नाम शायद किरन ढिल्लों था. सरदारनी थी. लम्बी और पतली सी. उसकी क्लास शायद दोपहर12:50 बजे ख़तम हो जाती थी और उस समय हमारा अंग्रेजी का पीरियड होता था. उसके के बाद बचता था एक पंजाबी का. सो, पंजाबी का लेक्चर 'बंक' करके हरमन मुझसे पहले नीम्बू-पानी की रेहड़ी पर पहुँचता..उसके पीछे पीछे मैं और अनुराग अबलाश.
किरन ढिल्लों दूर से ही न्यू ब्लाक से निकलती हुयी दिखती और धीरे धीरे से गेट से बाहर चली जाती. पीछे रह जाते हम. किरण ढिल्लों की जींस चर्चा का एक कारण यह भी था कि उन दिनों पंजाब में आतंकवाद की लहर चल रही थी. दो साल पहले ही '84' के दंगे होकर हटे थे. उसके चलते खाड़कू और सख्त हो गए थे और उन्होंने चंडीगढ़ समेत पूरे पंजाब में 'ड्रेस कोड' लागू कर दिया था जिसमें लड़कियों को सिर्फ सूट-सलवार पहनने और सर ढककर रखना भी शामिल था. ऐसे हालातों में किरन ढिल्लों का सरदारनी होकर जींस पहनना एक बड़ा साहसिक कदम था.
खैर, हरमन के बारे में फेसबुक पर पढ़ते ही मैंने उसे सन्देश भेजा और फिर मोबाईल नम्बर लिया और उससे मिलने जा पहुंचा. हरमन बदल गया था. पूरी तरह. मैंने उसे ऐसा देखने ही उम्मीद नहीं कि थी. सोचा था कि वह पहले की तरह उठकर गले मिलेगा और चंडीगढ़ के 'टिपिकल' तरीके से कहेगा 'किवें बाई जी'. पर ऐसा हुआ नहीं
हरमन 'व्हील चेयर' पर था. कोई 13 साल पहले एक कार दुर्घटना में उसकी रीढ़ की हड्डी में चोट लगी और शरीर के निचले हिस्से ने काम करना बंद कर दिया. पिछले 13 साल से हरमन व्हील चेयर पर है. लेकिन वह जो कर रहा है वह सभी नहीं कर सकते. हरमन 'अराईव सेफ' नाम की एक संस्था चला रहा है जो दुनियाभर परा सड़क दुर्घटनाओं को रोकने के लिए जागरूकता फैलाने का काम कर रही है. हरमन का नारा है 'अराईव सेफ' यानी सुरक्षित वापस घर पहुचें. हरमन इस दिशा में कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार ले चुका है. और अब देश की कई राज्य सरकारों के अफसरों को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि दुर्घटनाएं न सिर्फ वर्तमान और भविष्य को ख़त्म करती हैं, बल्कि यादों को भी ठेस पहुंचाती हैं...!!!
हरमन से मिलने के बाद मुझे याद आया कि किरन ढिल्लों को देखने के लिए मुझसे आगे भागता हुआ हरमन कितना सुंदर लगता था.

Saturday, May 30, 2009

कोड वर्ड का मतलब.

मसला इस बात पर उठा है कि घर के सदस्यों के पास एक ऐसा कोडवर्ड होना चाहिए जिसको सिर्फ वही जानते हों ताकि मुसीबत के समय मदद मिल सके. कोडवर्ड का मामला भी अभी चंडीगढ़ के एक अखबार ने सुझाया है. असल में हुआ यह कि चंडीगढ़ के बिजनेसमैन ललित बहल को दिल्ली से चंडीगढ़ लौटते समय रात को कुछ लुटेरों ने उनकी गाडी सहित अगवा कर लिया. ड्राईवर समेत जब बहल को उन्हीं कि कार में लेकर लुटेरे जब बहल के घर पहुंचे और गेट खुलवाया तो उन्होंने इशारे से पत्नी को बताने कि यह लोग 'रोबर्स' हैं. पत्नी ने दरवाजा खोल दिया. लुटेरे सारे परिवार को बंधक बना कर रातभर घर की तलाशी लेते रहे और लूटपाट करके चलते बने. बाद में बहल की पत्नी ने बताया कि उन्हें लगा लुटेरे उनके पति के दोस्त थे और उनका नाम 'रोबर्स' था. जय हो...!
खैर, इसी बात से मुझे कोडवर्ड रखने वालों के कई किस्से याद आ गए. उनमें से कई कोलेज के दिनों के हैं जब एक-दूसरे को सीटी बजाकर या किसी और तरीके से सिग्नल दिया करते थे. कई प्रोफेसरों के नाम कोड वर्ड प्रणाली के शिकार थे. 'बाबा' , 'मोटू', या लपूझन्ना की तर्ज पर नेस्ती मास्टर टाईप.
फिर यह भी पता लगा कि कोड वर्ड कि माया पूरे शहर में ही फैली थी. पुरानी बात है. पंजाब में आतंकवाद था और पुलसिया राज था. जगह जगह सड़कों पर तलाशी-नाके. और पुलिस वाले थे कि कोलेज में पढने वालों को ज्यादा ही रोकते थे-पैसे ऐंठने के चक्कर में. फिर एक कोड वर्ड निकला 'मामे'. पंजाब भर में चला. आज भी चल रहा हर. चंडीगढ़ में एक तरफ से आने वाले दूसरी और से आने वालों को पूछते थे ' मामे?' दूसरा हाथ हिला कर चला जाता था. या फिर बिना हेलमेट पहने मोटरसाईकल चलाने वाले लड़के एक दूसरे को भली मानसियत दिखाते हुए खुद ही बता देते थे कि आगे मामे हैं. और हम रास्ता बदल लेते थे.
उन दिनों मोबाईल फोन नहीं थे. लैंडलाइन हुआ करते थे. तो घंटी बजाकर मेसेज भेजने का तरीका भी चला. दो छोटी घंटी का मतलब सामने वाली लड़की को बालकोनी में बुलाना था और एक का मतलब अभी रास्ता साफ़ नहीं है. आधी रात को एक छोटी सी घंटी का मतलब 'गुड नाईट' हुआ करता था. यह बात और है कि घर में सब जान चुके थे कि रात को दस बजे एक घंटी बजनी ही है.
ऐसा ही जुगाड़ हमारे एक दोस्त ने भी लगाया. हुआ यूँ कि कोलेज के दिनों में हम हॉस्टल के कमरे से परेशान होकर उसके किराए के कमरे पर दोपहर बिताने जाने वाले थे. उसे एक दिन पहले ही बता दिया गया था कि हम दोपहर को आ जायेंगे और नुक्कड़ के ढाबे से चावल राजमा लाकर रखना और दही हम लेते हुए आयेंगे. उधर हमारे आने के समय ही उस दोस्त को गर्लफ्रेंड से मिलने जाना पड़ गया. उन दिनों जब मोबाईल फोन नहीं थे और हॉस्टल वालों को घर फोन करने के लिए रात 11 बजे का इन्तेजार रहता था कि एसटीडी के रेट आधे हो जायेंगे. तो दोस्त ने हमें इसकी सूचना देनी चाही कि उसे जाना पड़ रहा घर और कमरे की चाबी बाहर बाथरूम में है. आखिर उसने कोड वर्ड निकाला और एक छोटे से कागज पर नक़ल वाली पर्ची जितने छोटे शब्दों में लिखा कि चाबी बाथरूम में है और वह कागज़ दरवाजे के ताले में फंसा दिया....

Friday, March 13, 2009

ओए...हैप्पी होली, होली..होली चला....!!!

होली के दिन आपसी प्यार मोहब्बत का ऐसा नज़ारा पिछले कई सालों बाद देखने को मिला. मेरे मोहल्ले की गुस्सैल महिला मोहल्ले भर के रंग पुते बच्चों को लाइन में खड़ा करके समभाव से उनके मुंह धो रही थी. वह काले-नीले रंग से मुंह पुते बच्चों में से एक को पकड़ती और बड़े जतन से गीले कपड़े से उनका मुंह साफ़ करती. इस प्रेम भाव का रहस्योदघाटन शाम को हुआ जब वह मोहल्ले भर के बच्चों को गालियाँ दे रही थी और यह शिकायत भी कर रही थी कि उसे अपने बच्चे को पहचानने के लिए मोहल्ले भर के बच्चों का मुंह धोना पड़ गया।
खैर, होली के न तो अब रंग कि ऐसे रहे और न ही प्यार. अब मोहल्लों में भी विज्ञापन वाली होली मनायी जाने लगी है. लोग-बाग़ होली के लिए खास तौर पर सफ़ेद कपड़े बनवाते हैं. इसका एहसास भी मुझे अपने मोहल्ले की आंटी से हुआ जो फैशन डिजाईन का कोर्स करने वाली उनकी बेटी के सफ़ेद सूट को लेकर उतावली थी और मोहल्ले में ही सिलाई का काम करने वाली एक अन्य औरत से उलझ रही थी. कारण यह कि उसकी मॉडल बेटी ने कॉलेज के दोस्तों के साथ होली खेलने जाना था, जिसके लिए उसे सफ़ेद सूट चाहिए था. पता नहीं सिलसिला फिल्म में रेखा ने रंग बरसे वाले गाने में सफ़ेद सूट क्यों पहन लिया था. यह बात भी जानना रोचक होगा कि मोहतरमा जब शाम को होली खेल कर वापस आयी तो उनके होली खेले जाने का सबूत सिर्फ उनके चेहरे पर लगे तीन रंग के तिलक थे. उसके सफ़ेद सूट की क्रीज़ भी ख़राब नहीं हुयी थी. पता चला एक अखबार वालों की मुहिम पर चलकर कॉलेज में तिलक होली मनाई गयी थी, जिसमें एक दूसरे को सिर्फ तिलक लगाया गया था और वह भी सूट के रंग और चेहरे की रंगत को मैच करता हुआ।
मुझे अपने बचपन की होली याद आ गयी,जब हम होली से कई दिन पहले से ही स्कूल के बसते में रंग का पैकेट डालकर स्कूल ले जाते थे और छुट्टी के मौका पाकर एक दूसरे को लगा देते थे. यह बात और है कि होली से कई दिन पहले ही कपड़े रंगीन करने शुरू कर देने के कारण घर में जो पिटाई होती थी, उसका रंग भी और ही होता था. वह दिन भी मुझे याद है जब होली के दिन पक्का रंग बनाने के चक्कर में मेरा दोस्त लखन सिंह कई एक्सपेरिमेंट करता था और ऐसा रंग बनाता था कि कई दिन तक घिस-घिसकर उतारने के बाद भी कान और गर्दन पर लगा रह ही जाता था. पूरे मोहल्ले के बच्चे शाम तक रंगों में चेहरे रंगकर जब शाम को मैदान में क्रिकेट खेलते थे तो शक्लें ऐसी होती थी कि एक दूसरे को भी नहीं पहचान पाते थे. अगले दिन स्कूल में हमारे मोहल्ले के बच्चों का रंग अलग ही नज़र आता था।
तब एक चीज़ और थी. तब पिचकारियाँ सीधी-सादी हुआ करती थी. स्पाइडरमैन जैसे डिजाइन वाली नहीं. अब तो पीठ पर पानी का टैंक बांधकर पानी फेंकने वाली पिचकारियाँ भी आ गयी हैं. और रंग भी अजीब से नामों वाले. पहले गिनती के रंग हुआ करते थे. लाल, पीला और हरा. अब पर्पल, मजेंटा....
रंग से मुझे याद आया कि मेरा चार साल का बेटा इस होली को लेकर उत्साहित था, क्योंकि उसे शायद पहली बार पता लग रहा था कि होली के दिन बालकनी में खड़े होकर किसी पर भी पानी फेंका जा सकता है और और ऐसा करने से डांट नहीं पड़ती. और यह भी कि किसी को भी रंगा जा सकता है. उसने मुझसे रंग दिलाने को कहा. मैंने उससे कहा कि मैं उसे नीला रंग दिला दूंगा. लेकिन उसने तीन रंगों कि मांग की. नीला, वनीला और चाकलेट...!!!
और अंत में हमारे एक अंकल की बात भी....सुबह-सुबह मोहल्ले से अंकल की आवाज़ आयी. हैप्पी होली..हैप्पी होली....मैं हैरान कि अंकल ने सुबह-सुबह किसके साथ होली खेलना शुरू कर दिया. बाहर निकल कर देखा तो अंकल मोटरसाईकल पर तेज रफ़्तार से जाने वाले उनके बेटे को होली-होली (धीरे-धीरे) जाने को कह रहे थे...ओये हैप्पी होली...हैप्पी होली....!!!!

Saturday, March 7, 2009

प्रेम की नगरी में कुछ हमरा भी हक होईबे करी....

प्रेम करने का मतलब होता है, जेहाद करने वालों की जमात में शामिल होना। और इधर पिछले कुछ वक़्त से मैं देख रहा हूँ की जेहादियों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। इसका पुख्ता सबूत मुझे मिला पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट से, जहाँ जेहादियों की कतार में खड़े होने वाले लड़के-लड़कियां ज़माने से ज़्यादा अपने घरवालों के डर से भाग कर अदालत की शरण में आते हैं और गुहार लगाते हैं कि उन्हें प्रेम करने के आरोप में क़त्ल कर दिए जाने से बचाया जाए।
पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में साल करीब पाँच हज़ार ऐसे जेहादी आते हैं और अदालतों से गुहार लगाते हैं कि उनके मां-बाप को रोका जाए उनकी जिंदगी में टोका टाकी करने से। अदालत उनके इलाके के पुलिस वालों को आर्डर करती है कि प्रेम करने वालों को कुछ न कहा जाए। अब अदालत ने एक कमेटी बना दी है ताकि घर से भागकर शादी करने वाले इन जेहादियों के लिए एक सिस्टम बनाया जा सके। कमेटी के एक मेंबर हैं राजीव गोदारा। गोदारा कहते हैं कि समस्या समाज की सोच बदलने की है। उनका कहना है की प्रेम विवाह करने को व्यक्तिगत आज़ादी के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए न कि सामाजिक नियमो के प्रति विद्रोह के रूप में। वैसे वे एक सवाल यह भी करते हैं कि शादी करने या न करने को भी कानूनी या सामाजिक जामा क्यों पहनाया जाना जरूरी है? अगर दो व्यस्क उनकी मर्ज़ी से साथ रहना चाहते हैं तो उसमे तंत्र या समाज की मंजूरी लेना जरूरी क्यों हो? ख़ुद की खुशी के लिए किसी से मंजूरी लेना संविधान की मूलभूत अवधारणा का उल्लंघन है।
खैर, मुद्दा यह है कि प्रेम करने वालों को आराम से जीने क्यों नहीं दिया जाता. प्रेम करने वालों कि जान के दुश्मन लोग क्यों हो रहे हैं, यह समझना मुश्किल हो रहा है. चलो माँ-बाप कि तो समझ आती है कि उन्हें अपने बच्चे जायदाद लगते हैं और उनपर हक समझना माँ-बाप का हक होता है. और यह भी कि माँ-बाप चाहे कितने भी आधुनिक हो, वे समझते हैं कि उनके बच्चे हमेशा प्यारे से नन्हे-मुन्ने हैं और उन्हें अभी दुनियादारी का नहीं पता.लेकिन ये बात मेरी समझ से परे हो रही है कि हरियाणा में खाप के नाम पर धर्म और समाज कि ठेकेदारी करने वालों को किसी से क्या लेना देना है? यह लगभग वैसा ही है जैसे कॉलेज में नए नए दाखिल होने वाले लड़के करते हैं. जिस लड़की पर फ़िदा हो गए, वो सबसे शरीफ लड़की होती है, बशर्ते कि वह लड़की सिर्फ और सिर्फ उसी लड़के के प्रस्ताव को हाँ करे. अगर उसे हाँ नहीं करे तो किसीको नहीं हाँ न करे. और अगर किसी और लड़के को हाँ कर दे उस से बदचलन लड़की और कोई नहीं...!!
ऐसा ही व्यवहार खाप पंचायतों के ठेकेदार कर रहे हैं कि लड़की या तो हमारी मर्ज़ी वाले लड़के से शादी करेगी नहीं तो दुनिया भर के लड़के उसके भाई बनेंगे. आप देख लीजिये हरियाणा में येही हुआ. अपनी मर्ज़ी से शादी करने यानी प्रेम विवाह करके अपना घर बसा लेने वाली लड़की को समाज के ठेकेदारों ने भाई-बहन बनने के लिए डराया- धमकाया और गाँव से निकल दिया. पूछे कोई इन बंद दिमाग वालों से कि शादी करके एक बच्चा पैदा करके कोई लड़की कैसे अपने शौहर को भाई मान लेगी? वोह मरना पसंद करेगी ऐसी जलालत से. मनोज और बबली कांड में तो ऐसा ही हुआ. दोनों को जान से हाथ धोना पड़ा. पता नहीं कब समझेंगे लोग कि एक ही जनम मिला है जीने के लिए. प्यार से जियो. उम्र इतनी है ही कहाँ कि नफरत के लिए वक़्त मिले?? रोहतक में जगमती सांगवान नाम की जुझारू महिला हैं. प्रेम विवाह करने वालों की तरफ खड़ी हैं. सुबह निकलती हैं और घूम घूमकर समाज के ठेकेदारों की बंद अक्ल को खोलने के काम में जुटी रहती हैं.. अमेरिका में बसी पत्रकार रमा श्रीनिवासन ने भी इस मामले में अपने सुझाव भेजे हैं. वे तो यह कहती हैं की हरियाणा में प्रेम विवाह करने वालों के खिलाफ दर्ज होने वाले मामलों की सुनवायी हरियाणा में होनी ही नहीं चाहिए क्योंकि पुलिस वाले भी उसी सामाजिक सोच के हैं. ऐसे सुझावों पर गौर करना जरूरी है क्योंकि युवा वर्ग को दबा कर रखना किसी चिंगारी को दबाये रखने जैसा ही होता है...अच्छा है युवा वर्ग अपनी जिम्मेदारी को अपने सर लेने की जिद कर रहा है. आईये उन्हें भी समाज में उनका हक दे दें. और वे मांग भी क्या रहे हैं? प्रेम करने का हक. क्या उनका इतना भी हक नहीं है समाज पर??

Monday, February 23, 2009

लंगोट वालों के लिए (पिंक) चड्डी.....!!! हाय राम...!!!

दिन भर वैलेंटाइन दिवस मनाने और उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए हाथ धोकर पीछे पड़े सेनापतिओं, दलियों और परिषादियों के कारनामों की खबरें पढ़ता रहा. मुझे दो बातें बिल्कुल भी समझ में नहीं आ रही, पहली यह कि इन्हें धरम कि ठेकेदारी करने का लाईसेन्स कौन देता है? और दूसरी बात यह कि अपनी औरतों और दूसरों की बहनों-बेटियों के साथ बदतमीजी करना क्या ये लोग माँ के गर्भ से सीखकर आते हैं या यहाँ हिन्दुस्तान में भी तालिबानिओं ने अपनी फ्रैन्चाईजी दे दी हैं ट्रेनिंग कैंप चलाने की. या राज चलाने वालों की नीतियां ही ऐसी हैं...? मंगलोर में जो हुआ उसे तो सरकारी नीति ही कहा जा सकता है क्योंकि राज चलाने वालों ने उसके ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोला. पब में बैठी लड़किओं के साथ जो हुआ वह भी तो संस्कृति नहीं है. देश के एक एक पैसे पर, नोट पर महात्मा गाँधी की फोटो लगी है...और उनके अहिंसा के नारे को हम याद तक नहीं रख रहे. वैसे मतलब तो यह भी नहीं है की पब भरो आन्दोलनों से ही नारी आजादी आने वाली है. रेणुका चौधरी के बयान पर भी मैं हैरान हुआ, असल में वे मोहतरमा भी इस मुगालते में हैं कि पब में जाने, अधनंगे बदन रखने से ही औरतें आजाद होंगी. आज़ादी का मतलब सोच की आज़ादी से है कि वे कितनी आज़ादी से सोच सकती हैं. और सोच पब से नहीं बल्कि बुद्धिजीविता से आती है. पब में बैठने से सिर्फ़ बिंदास दिखा जा सकता है, बना नहीं जा सकता. बिंदास होने के लिए उस स्तर तक आना पड़ेगा जहाँ से एक तर्कसंगत सोच शुरू होती है. हमारे मुथालिक को भी मारपीट कर संस्कृति सिखाने की कोशिश छोड़कर पब में बैठने वाली लड़कियों को अमृता प्रीतम जैसी बिंदास बनने के बारे में बताना चाहिए जिसने आज से कई साल पहले बिना शादी किए इमरोज़ के साथ रहने का मादा दुनिया को दिखाया. यह मादा तभी आएगा जब सोच बदलेगी. मेरे एक दोस्त राजीव गोदारा की बात याद आ गयी जो सोच बदलने का जबरदस्त उदाहरण है. राजीव गोदारा पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में वकील हैं. प्रेम विवाह करके माँ-बाप और समाज से सुरक्षा लेने के लिए हाई कोर्ट में आने वाली उन लड़कियों की बात की राजीव ने. राजीव का तर्क है की लड़कियां विवाह के लिए समाज के पित्रात्मक नियमों को ठुकरा रही हैं यह अच्छी बात है. पर उनकी सोच स्वतंत्र नहीं हो रही. क्योंकि वे समाज के नियम तोड़कर शादी कर रही हैं, लेकिन दुल्हन के लिए हाथ में कुहनी तक चूडा पहनने वाली शर्त से बाहर नहीं निकल पा रही हैं. अगर वे विवाह को संस्था के तौर पर ठुकरा रही हैं तो वे जींस पहनकर शादी क्यों नहीं करती....!!! ये ही सोच का फर्क है..जो आना चाहिए. बात मैं उन की कर रहा हूँ जिनके राज में यह सब हो रहा है. पता नहीं राज को धरम बताने वाले इंसानियत का धरम कब सीखेंगे. सब को थोड़ा टाईट करने की जरूरत है. टाईट किए बिना कुछ होने वाला नहीं है. चंडीगढ़ के नजदीक लगते हरियाणा के शहर पंचकुला में कानून और व्यवस्था की हालत ख़राब हो गयी. तीन साल में 17 डकैतियां और 18 कत्ल. डीजीपी साहब से पूछा की जनाब, एसपी ने तो कुछ नहीं किया, आपने क्या किया? डीजीपी साहब बोले-मैंने एसपी को थोड़ा टाईट कर दिया है. अगर टाईट करने से सब कुछ ठीक हो सकता है तो राज चलाने वाले इन राम सेना वालों, बजरंग दल वालों और विश्व हिन्दू परिषद् वालों को क्यों नहीं टाइट कर रही? जनता को ही टाइट किए जा रहे हैं. चंडीगढ़ में पिछले हफ्ते इंडियन नेशनल लोकदल नाम की पार्टी ने एक राजनैतिक रैली की. रैली का आयोजन हरियाणा में क़ानून और व्यवस्था ख़राब होने के कारण कांग्रेस सरकार को टाईट करना था. लेकिन जिस तरह से सारी कानून व्यवस्था को धत्ता बता कर रैली करने वालों ने चंडीगढ़ शहर के बाशिंदों को टाईट किया, वो ही जानते हैं. एक बुजुर्ग ने तो शुक्र मनाया की रैली करने वाले सत्ता में नहीं हैं, नहीं तो कानून व्यवस्था का क्या हाल करते ये सबके सामने ही है. बात जब टाईट करने की ही चल पड़ी है तो यह भी बता देता हूँ कि मुथालिक जैसे लोगों को लड़कियों के टाईट कपड़े पहनने पर पहले ही ऐतराज़ है और ऊपर से इन पिंक चड्डी वालियों ने समस्या गंभीर कर दी. पच्चीस हज़ार चड्डी भेज तो दी मुथालिक को पर उसे सारी टाईट हैं. कोई भी उसके साइज़ नहीं है. मुथालिक ने समझदारी दिखाई कि साडियां भेज दी. साइज़ का कोई चक्कर नहीं. कोई भी पहन ले. शुक्र है निशा सरूर ने 'पब जाने वाली, लूज़ और फॉरवर्ड लड़कियों' से मुथालिक के लिए बिकनी वाली चड्डी भेजने का आह्वान नहीं कर दिया. राम राम...!!! क्या ज़माना आ गया है. एक ज़माना था लडकियां घरों में भी अपनी चड्डी बड़े कपडों के नीचे छुपा कर सुखाया करती थी किसी कोने में और अब पार्सल कर रही हैं...?? मुझे याद आया कि किसी ने मुझे एक बार समझाया था कि समझदार वही होता है जो दूसरों के फेंके पत्थरों से अपने लिए मकान बना ले.. तो समझदारी इसी में हैं कि मुथालिक इन चड्डी की दूकान खोल लें. गांधीगिरी का इस से अच्छा तरीका नहीं हो सकता. वैसे एक बात मुझे समझ नहीं आ रही कि औरत जात से नफरत करने वालों के इन सभी गैंग वालों ने अपने नाम भगवान पर क्यों रखे हैं? सतयुग में तो किसी भगवन ने ऐसा नहीं किया. राम सेना वाले जिस संस्कृति की बात कर रहे हैं वे अगर रामायण में छपी माता सीता की फोटो देख लें तो उन्हें अकल आ जाए. उस ज़माने में औरतों के पहनावे के बारे में लिखा गया है कि वे साड़ी और कंचुकी पहनती थी. लड़कियों के जींस और टॉप पहनने पर ऐतराज़ करने वाले जान लें कि कंचुकी बिकनी से भी छोटा अंग वस्त्र होता है. भगवान के किसी भी अवतार ने औरतों के कपडों के तरीके पर तो ऐतराज़ नहीं किया. सीता हरण के बाद जंगल से मिले जेवर जब भगवान राम ने बजरंग बली को दिखाए और पूछा कि हनुमान, क्या तुम सीता के जेवर पहचानते हो? तो बजरंग बली ने कहा प्रभु, मैंने तो माता सीता के पैरों को ही देखा है, पैरों में पहनने वाला कोई जेवर हो तो पहचान लूँगा. हैरानी है कि बजरंग बली के नाम पर बनी बजरंग दल वाले लड़कियों के सारे बदन को जांच लेते हैं कि उसने ऊपर क्या पहना है और नीचे क्या? इन्हें भी टाईट किए जाने कि जरूरत है..लड़कियां ही करेंगी किसी दिन इन गुंडा राज चलाने वालों को टाईट. टाईट जींस के नीचे जो हील वाले टाईट जूते हैं न, वह ही राज चलाने वालो को भी ठीक करेंगे...one tight slap and MTV bolti band..!!! मुझे एक दोस्त की बात याद आ गयी जो कहता है कि जो जिस जुबान में समझता हो, उसे उसी जुबां में समझाना चाहिए, इस लिए इन राम सेना और बजरंग दल वालों को आजकल की भाषा में रामायण समझानी चाहिए....उदाहरण लीजिये....श्री राम के वनवास जाने के बाद जब भरत अयोध्या लौटे तो पाया की भाई साहब तो जंगल में चले गए हैं रहने..वे राम जी को मनाकर लाने गए. भरत बोले-भाई साहब, आप वापस चलिए, राम जी बोले-भरत, तुम जाओ, और राज करो...और सुनो, यह मेरे जूते ले जाओ. क्योंकि आज कल जूते के बिना 'राज' नहीं चलता....!!! (नोट: कृपा ध्यान दें, भगवान् राम जी का इशारा 'राज' ठाकरे की तरफ़ नहीं था...!!!)

आओ, करोड़पति कुत्ते का नाम बदलें....!!!

दोस्तों, चंडीगढ़ में कल कुत्ता-प्रदर्शनी यानी 'डॉग-शो' लगी थी. कई नस्ल और किस्म के कुत्ते आए थे हिस्सा लेने क लिए. लेकिन सब में एक बात समान थी और वो यह कि उनमें से कोई भी 'स्लमडॉग' नहीं था और उन सभी के मालिक 'करोड़पति' थे. एक कुत्ता तो ऐसा भी था जिसकी कीमत साथ लाख बताई गयी जो लगभग करोड़ रुपये के करीब है. जाहिर हैं कुत्ते को चुरा ले जाने वाला भी करोड़पति बन जायेगा. खैर, मॉडल और एक्टर गुल पनाग भी वहां आई हुई थी. जिस बात ने मेरा ध्यान खींचा वह था उसके कुत्ते का नाम ऑस्कर है. ऑस्कर से मुझे तुरन्त याद आया कि हमारे यहाँ की झुग्गी-बस्ती का एक कुत्ता इन दिनों करोड़पति बन गया है और 'ऑस्कर' पुरस्कार में भी सबसे आगे पहुँच गया है. इसमें क्या बड़ी बात है? हमारे यहाँ तो कुत्तों के नाम ही ऑस्कर हैं...!! नाम से याद आया कि पिछले दिनों एक बड़ा विवाद यह भी सुर्खियों में रहा कि आमिर खान के कुत्ते का नाम शाहरुख़ खान है. इसका मतलब आमिर साहब भी टॉप लेवल के कुत्तों के शौकीन हैं. नाम बड़ी चीज़ है. स्लम डॉग मिलिनेयर फ़िल्म ने हिंदुस्तान का नाम ऑस्कर तक पहुँचा दिया और लोग हैं कि झुग्गी-बस्ती के कुत्तों के नाम खराब करने का रोना रो रहे हैं. मुंबई झुग्गी बस्ती में रहने वालों ने मोर्चा खोल दिया कि फ़िल्म ने उनकी इज्ज़त मिट्टी में मिला दी. झुग्गी बस्ती के कुत्ते भी अब उनकी इज्ज़त नहीं करते. उन्होंने मांग कि कि फ़िल्म का नाम बदलो. नहीं हुआ. ऑस्कर पाने वालों ने कहा-अज्जी, छोडो भी. कुत्ते तो भोंकते रहते हैं. आप गाना सुनिए. इनका क्या है? कल को बोलेंगे एचऍमवी का निशान बदल दो..उसमें भी कुत्ता बैठा है ग्रामोफोन के सामने. कुत्ते का नाम बदलने से ही यह भी याद आया कि मेरा एक दोस्त था सर्वमीत सिंह. पत्रकार था. स्पष्टवादी और बेबाक. . सभी अच्छे लोगों कि तरह वह भी जल्दी चला गया इस दुनिया से. एक बार उसने मुझे बताया कि रात को खाना खाने के बाद जब वह सैर करने निकला तो उसे एक महिला मिली जो अपने तीन साल के बच्चे को घुमा रही थी. बच्चे ने गली के एक कुत्ते को देखा और बोला- मम्मी, देखो कुत्ता..!! महिला बोली-नो, बेटा वो डोग्गी है. बच्चे ने फ़िर अपनी भाषा में बोलने कि जिद की कि- मम्मी, वो कुत्ता है. महिला नहीं चाहती थी कि उसका बेटा कुत्ते को कुत्ता कहे. सर्वमीत से रहा नहीं गया. बच्चे से बोला-बेटा, तू मुझे कुत्ता कह ले, पर उसको डोग्गी ही बोल दे. अब यह बताने कि जरूरत नहीं कि महिला ने सरदार जी के साथ क्या किया होगा. खैर, नाम और बदलने कि मांग से जुड़ी एक ख़बर ने हमारे शौकत मियाँ को काफ़ी तकलीफ दी है. सलून वालों ने 'बिल्लू बारबर' फ़िल्म का नाम बदलने कि मांग रख दी. और हैरानी तो यह है कि नाम तुंरत ही बदल दिया गया. और तो और शाहरुख़ खान ने माफ़ी भी मांग ली. उन्हें पता है ये कोई साधारण नाई नहीं हैं. पेज 3 पर छपने वाले लोग हैं. अंग्रेज़ी बोलने वाले, सिल्विया जैसे, लन्दन से बाल काटने कि ट्रेनिंग लेकर आने वाले. दो दिन के लिए भी हड़ताल पर चले गए तो पेज 3 की सारी पार्टियों का भट्ठा बैठ जाएगा. शौकत मियाँ का कहना है-मिया, हमें चालीस साल हो गए लोगों की हजामत बनाते हुए. रहे फ़िर भी नाई के नाई. एक मौका मिल रहा था नाई से बारबर बनने का..साले, वो भी ले गए. नाम की महिमा के बारे में मैं ज्यादा नहीं कहूँगा. सिर्फ़ उतनी बात जो मेरे इर्द-गिर्द हो रही है. ऋतू चौधरी के महिमा बनने की कहानी कहने पर गया तो युसूफ साहब से दिलीप कुमार बनने और ऐ.आर. दिलीप कुमार से ऐ.आर. रहमान बनने और करोड़पतियों के कुत्तों का नाम ऑस्कर रखे जाने की बात भी कहनी पड़ेगी. मैं एक ऐसे परिवार की बात जरूर करूँगा जिन्होंने अपनी बेटी का नाम इतना सटीक रखा है कि हैरानी होती है. अंकल जी पंजाब से हैं और आंटी जी हरियाणा से. घर में बेटी हुई तो नाम सोचा जाने लगा. फ़िर दोनों ने मिलकर नाम रखा 'परियाना'-पंजाब और हरियाणा को मिलाकर. अंकल ने दोनों राज्यों को मिला दिया और आंटी ने इसका मतलब निकाला-परी का आना. शायद हमारे पॉलिटिकल लीडर और लड़कियों को गर्भ में मार देने वाले भी सबक ले लें परियाना से. नाम रखने और बदल लेने का भी रिवाज़ आजकल चल रहा है. लोग तो मानते हैं कि इसकी शुरुआत करीना कपूर कि बहन करिश्मा कपूर ने कि थी जिसने अपना नाम बदल कर मोटर सायिकल जैसा कर लिया था-करिज्मा..!! उसके बाद बॉलीवुड में फैशन चल पड़ा. मुझे याद आता है करीब बीस साल पहले मैंने किसी के घर के आगे लगी नेम प्लेट देखि थी जिसमे kapoor की जगह capoor लिखा था. मैं कई साल तक सोचता रहा की शायद स्पेलिंग ग़लत हो गए है. अब हालत ऐसे हैं कि किसी ने दो 'ऐ' लगा लिए हैं किसी ने दो 'बी'. मेरे दोस्त आदित्य के ऑफिस में काम करने वाली एक लड़की ने अपने नाम प्रियंका में 'एच' लगा लिया है. उसे विश्वास है कि उसका नया नाम करिज्मा करेगा. देखते हैं. बाकी, एक बात और बता देता हूँ जो मुझे अभी अभी याद आई है. मुझे जानने वाले एक सज्जन ने बताया कि उसने तीन कुत्ते पाल रखे हैं, जबकि उसके पिता कहते हैं कि उनके घर में चार कुत्ते हैं. शेरू, टॉमी, बाक्सर के अलावा चौथा कौन??? चौथा जोनी-यानी मैं...!!! मुझे नाम बदल लेना चाहिए यार..! कोई जानता है क्या नुमेरोलोजिस्ट???

thats the guy...!!! wow...!!

Contributed by: Sasidhar N. Reddy (sasi@netcad.enet.dec.com)This is the essay on "Cow" which was (supposedly) written by some student in the course of completing the "Indian Civil Services Examination" :-) I bet you will enjoy this. Sachi PS : There are no typos in this essay. Everything is legal and as it was written in the exam.If you develop cramps reading this or find your English gone haywire after reading this, please dont blame me :-) ___________________________________________________________________________ CALCUTTA's Telegraph has got hold of an answer paper of a candidate at the recent UPSC examinations. The candidate has written an essay on the Indian cow: "The cow is a successful animal. Also he is quadrupud, and because he is female, he give milk,but will do so when he is got child.He is same like God,sacred to Hindus and useful to man.But he has got four legs together. Two are forward and two are afterwards. "His whole body can be utilised for use. More so the milk. What can it do? Various ghee, butter,cream, curd, why and the condensed milk and so forth. Also he is useful to cobbler, watermans and mankind generally. "His motion is slow only because he is of asitudinious species. Also his other motion is much useful to trees, plants as well as making flat cakes in hand and drying in the sun. Cow is the only animal that extricates his feeding after eating. Then afterwards she chew with his teeth whom are situated in the inside of the mouth. He is incessantly in the meadows in the grass. "His only attacking and defending organ is the horn, specially so when he is got child. This is done by knowing his head whereby he causes the weapons to be paralleled to the ground of the earth and instantly proceed with great velocity forwards. "He has got tails also, but not like similar animals. It has hairs on the other end of the other side. This is done to frighten away the flies which alight on his cohoa body whereupon he gives hit with it. The palms of his feet are soft unto the touch. So the grasses head is not crushed. At night time have poses by looking down on the ground and he shouts his eyes like his relatives, the horse does not do so. "This is the cow." P.S.: We are informed that the candidate passed the exam.

wow guys...!!! उर्फ़ भाँ..भाँ गाय..!!!

दोस्तों, गाय के बारे में पढने के बाद मुझे मेरे कई मित्रों ने गाय से सम्बंधित और भी कई रोचक जानकारी उपलब्ध कराई हैं. आपके लिए भी पेश है.
पहली जानकारी तो यह कि गाय की किस्म का नाम सरहाली नहीं, साहिवाल है. यह किस्म का मूल पंजाब के दोआबा इलाके से है. इसका आकार बड़ा होता है और यह सफ़ेद रंग की होती है. राठी या राठा किस्म की गाय भी हरियाणा में पाई जाती है और मूलतया यह राजस्थान की किस्म है. मेरे बॉस ने मेरी जानकारी में यह बढोतरी भी की कि नागोर किस्म की गाय की एक किस्म ऐसी है जो सिर्फ़ राजस्थान के नागोर इलाके में होती है और वहाँ के लोग इसके प्रति इतने भावुक हैं कि वे इसे नागोर जिले से बाहर नहीं जाने देते. उन्हें शायद यह डर है कि कहीं उनकी गाय कि नस्ल ख़राब न हो जाए. इसका शरीर छोटा होता है और रंग भूरा या हल्का लाल.
वैसे गायों के बारे में जो बात मुझे पता चली वो यह कि गूगल पर इंडियन काऊ लिखकर सर्च करने पर 93 लाख लिंक खुल जाते हैं. इनमें से एक 'लव फॉर काऊ' नाम कि साईट भी है जो बताती है कि दिल्ली के ईस्ट ऑफ़ कैलाश इलाके में आशा स्वामी नाम की एक महिला हैं जो गायों के लिए एक ट्रस्ट चलाती हैं. उनकी एक मैगजीन भी है 'द इंडियन काऊ जर्नल' के नाम से. मुझे ऐसा भी याद आया कि किसी अखबार में ख़बर छपी थी कि देश की आज़ादी के समय देश में 40 करोड़ गायें थी जो या तो गौकशी का शिकार हो गयी या कचरे के ढेर में खाना ढूढ़ने के चक्कर में पालीथीन खा गयी और दम घुटकर मर गयी या पेट के कैंसर का शिकार हो गयी. अब देश में सिर्फ़ दस करोड़ गायें बची हैं. यह दस करोड़ गायें कब तक बचेंगी, कहा नहीं जा सकता क्योंकि कुछ लोग गाय के दूध में अधिक प्रोटीन होने का तर्क देकर इसके हानिकारक होने का प्रचार कर रहे हैं. उनका कहना है कि सिर्फ़ इंसान ही एक ऐसा जीव है जो व्यस्क होने पर भी दूध पीटा है. बाकी सभी जानवरों के बच्चे बड़े होने पर दूध पीना छोड़ देते हैं. तो अगर यह तर्क लोगों के दिमाग में घर कर गया तो लोग गाय का दूध पीना छोड़ देंगे और अगर गाय का दूध पीना ही नहीं तो उसे रखने का तो सवाल ही नहीं. अब तो दुनिया में इतना स्वार्थ हो गया है कि अगर काम नहीं आ रहे हों तो लोग माँ-बाप को भी घर से निकाल देते हैं. ये तो बेजुबान जानवर ठहरी. लोग गाय का दूध छोड़कर सोया मिल्क पीना शुरू कर देंगे. गाय कि जरूरत ख़त्म. फ़िर सोया मिल्क से पैदा होने वाली बीमारियों के बारे में बातें सामने आएँगी. फ़िर उसका इलाज़ ढूंढेंगे.
इसी संदर्भ में मेरे एक एनआरआई दोस्त ने दो बातें बतायी. पता नहीं उनमे सच्चाई कितनी है लेकिन जिस शिद्दत से उसने कहा मुझे दोनों बातों में कोई सम्बन्ध ढूंढ़ना पड़ा. उसने बताया कि अमेरिका की किसी यूनिवर्सिटी में एक रिसर्च हुई है कि गाय की पीठ पर रोज़ हाथ फेर कर उसे दुलारने से हार्ट अटैक का खतरा नहीं होता. किस यूनिवर्सिटी में ऐसी रिसर्च हुयी है, यह उसे याद नहीं आया, लेकिन मेरे तर्क करने पर जब वो मुझसे लड़ने पर उतारू होगया तो मुझे उसकी बात माननी पड़ी. हो सकता है उसकी बात में दम हो, क्योंकि पहले गाँवों में गाय हुआ करती थी, लोग गाय को रोटी खिलाकर उसकी पीठ पर हाथ फेरा करते थे. शायद इसलिए हार्ट अटैक तो शहरी बीमारी कहा जाता था. अब गावों में गायें कम हो गयी हैं, हार्ट अटैक वहां भी पहुँच गया है. उसकी दूदरी बात भी भारतीय धर्म और अध्यात्म से जुड़ी हुयी है. उसने बताया कि अमेरिका में 'मैड काऊ' ननम कि बीमारी फैली थी. लोगों ने कहा कि गाय का मीट खाने वालों को होती है. मेरे दोस्त का तर्क है कि गाय धर्म से जुदा एक जानवर है. उसे अपनी मौत का अंदाजा पहले ही हो जाता है. इसलिए जब गायों को बुचडखाने ले जाया जाता है तो उस से पहले ही उसे अहसास हो जाता है. इस दौरान उसके शरीर से जो हारमोन निकलता है उसके कारण ही उसके मीट को खाने वालों को 'मैड काऊ' बीमारी हो जाती है. पता नहीं, लेकिन एक बात मुझे याद है जो मैंने एक धर्म ग्रन्थ में पढ़ी थी कि गाय को पवित्र और इंसान के नज़दीक क्यों मानते हैं? इसका कारण लिखा था कि हिन्धू धर्म के मुताबिक 84 लाख योनियाँ पार करने के बाद आखिरी योनी गाय कि होती है, और इस योनी में उसकी समझ और इन्द्रियाँ इंसान जैसी हो जाती हैं. गाय का जन्म पूरा करने के बाद अगला जन्म इंसान का होता है. अगर हम गाय को मारते हैं तो हम उसके इंसान के रोप में जन्म लेने का एक मौका उस से छीन लेते हैं. और उसे सभी 84 लाख योनियाँ फ़िर से पार करनी पड़ती हैं. जाहिर है, इंसान बनने के इतने करीब पहुंचे एक जीव को अगर खाने के लिए मारा जाए तो उसके भीतर का दुःख हारमोन बनकर ही निकलेगा और दुःख, क्षोभ और लाचारी के हारमोन लस 'काऊ' 'मैड' नहीं होगी तो क्या होगी? क्यों गायेस????

hi guys..!!! उर्फ़ हाय गाय...!!!

बीते कल मेरे बॉस ने जब हरियाणा में गायों की किस्मों की बात की तो अचानक मुझे लगा की इस शहर में रहते हुए यह भूल ही गया हूँ कि गौओं के साथ एक उमर में मैं भी रहा हूँ. उस गाँव में जहाँ तालाब पर गायों और इंसानों के नहाने की कोई अलग व्यवस्था नहीं थी. मैंने भी गायों के साथ उसी तालाब में नहाना और तैरना सीखा है. तब मैं गायों को उनकी किस्मों से नहीं, उनके नामों से पहचान लेता था. अब उनकी किस्मों का फर्क भी नहीं याद. हरियाणवी, राठी और सरहाली...ये तीन किस्में हैं गायों की. मुझे नहीं याद था. मेरे बॉस ने बताया. पूछना चाहता था की इनकी पहचान क्या है, लेकिन नहीं पूछा. यह सोचकर की मैं ख़ुद को गाँव से जुड़ा होने का दावा करता रहता हूँ. खासकर चंडीगढ़ की इस आबादी के सामने जिसके लिए गायें आवारा घूमने वाला एक जानवर है. इस आबादी के लिए गायें सडकों को गंदा करने और शायद मन्दिर वाले पंडित जी के कहने पर उपाय करने के काम आने के अलावा और किसी काम नहीं आती. मुझे याद आता है कैसे बचपन में मेरी माँ ने मुझे इक्कीस दिन तक गो-मूत्र पिलाया था, शायद इस उम्मीद में कि मैं गायों कि किस्में याद रखूंगा. अभी पिछले दिनों बाबा रामदेव के एक चेले ने मुझे गो-मूत्र और शहद की बोतल भेंट की इस उम्मीद के साथ कि एक महीना गो-मूत्र पीकर मेरा ब्लड प्रेशर ठीक हो जाएगा और छोटी-मोटी खारिश-खुजली भी जाती रहेगी. लेकिन सच यह है मैं गो-मूत्र की बोतल खोल ही नहीं सका. ऐसे ही रखी है दो महीने से. वक्त ने गायों कि किस्मों के साथ लोगों कि किस्में भी भुला दी हैं. अब सब एक किस्म के हैं...शहर और गाँव भी एक ही किस्म के हो गए हैं और गायें भी शहरी किस्म की. कूड़ेदान के पास मुंह मारती. हरा चारा तो बुधवार के दिन ही मिलता है. चोपडा साहिब की बेटी को बता रखा है तेईस सेक्टर में रहने वाले पंडित जी ने कि बुधवार को वजन के बराबर हरा चारा गौउओं को खिला देना अपने हाथ से...पेपर में पास को जायेगी और हेल्थ भी ठीक रहेगी. बाकी दिन तो चोपडा साहिब की वाइफ गेट के बाहर का पूरा ध्यान रखती हैं. गायें फूल खा जाती हैं. माली रखा हुआ है फूलों के लिए. बेटी सोमवार का वर्त रखती है, उसे मन्दिर में चढाने होते हैं सफ़ेद फूल. इस लिए लगाये हैं, गायों को खिलाने के लिए थोड़े ही. गायें तो कुछ भी खा लेती हैं. हमें उनसे क्या लेना. बेटी तो दूध पीती नहीं. हम दो जन हैं, वेरका के पैकेट ले लेते हैं. गायों का दूध हमें तो नहीं अच्छा लगता तो गायें को लगें अच्छी. खैर, मैं उन गायों की बात करने रहा था जिन्हें मैंने अपने गाँव में देखा था. घर के चूल्हे पर बनने वाली पहली रोटी पर जिनका पहला हक होता था और दूसरी पर गली में एक एक बच्चे की पहचान रखने वाले कुत्ते का. अब न तो गावों में चूल्हे रहे और न चूल्हों पर रोटी बनाने वाली माएं. और न यह याद रखने वाली औरतें की पहली रोटी गाय के लिए है...क्योंकि गावों में भी अब गायें नहीं रही. गावं की आत्मा को जिंदा रखने वाली बूढी औरतें देने के लिए गायों को ढूँढती हैं. जब गावों में गायों का यह हाल है तो शहरों में कैसा होगा? मेरे एक दोस्त ने कहा अजीब बात है, शहरों में गायें अचानक बढ़ गयी हैं? मैंने हैरानी से पूछा कैसे? तो उसका जवाब था अब शहरों में लड़के नहीं हैं, अब गाये हैं. एक दूसरे को गाये कहते हैं....hi guys..!!!!