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Wednesday, June 24, 2009

मेरा दिल भी जिद पर अड़ा है किसी बच्चे की तरह...

मैं उसे अब तक कम ही जान पाया था, कल रात के बाद मुझे उसका एक अलग रूप नज़र आ रहा है। पता नहीं पिछले बारह साल तक मैंने उसमें एक जिद्दी बच्चे को क्यों नहीं देखा। हाँ, मैं राकेश की ही बात कर रहा हूँ। कल शाम ऑफिस से जल्दी काम निपटा लेने के बाद जब मैं उसके दफ्तर पहुंचा तो वह 'यूट्यूब' पर नूरजहाँ का गया 'लो फिर बसंत आया' ढूँढने में व्यस्त था। हालांकि उसने मुझे लम्बी सैर करने के लिए बुलाया था जो हम दोनों की बारह के पुरानी दोस्ती का एक सूत्र है.
उन दिनों जब हम में से किसी पर भी परिवार की जिम्मेदारी का अहसास हावी नहीं हुआ था और देर रात तक घर से बाहर रहने पर कोई जवाब नहीं देना होता था, तब राकेश और मैंने कई साल तक चंडीगढ़ में सुखना झील के किनारे-किनारे आधी रात बीते तक लम्बी सैर की हैं। मैं उन दिनों जनसत्ता अखबार में रिपोर्टर था और राकेश दिव्य हिमाचल नाम के अखबार में। मेरा दफ्तर उसके दफ्तर और घर के बीच में था. राकेश क्राईम रिपोर्टर था और डाक्टरी का ठप्पा लगा होने के कारण मैं 'हेल्थ कोरेस्पोंडेंट'. आधी रात को राकेश मेरे दफ्तर पहुंचता.मेरे दफ्तर की कनटीन में 'थाली' खा लेने के बाद हम दोनों अपने स्कूटरों पर लम्बी सैर को निकलते थे. झील पर जाकर स्कूटर एक कोने में फेंकते और झील के किनारे किनारे अँधेरे में गीत-गज़लें गाते-गुनगुनाते करीब पांच किलोमीटर की सैर करते. इस दौरान हम दिन भर की घटनाओं का जिक्र करते और भविष्य के लिए देखे जा रहे कुछ सपनों का भी. उनमें से एक कार खरीदने लायक पैसा जमा कर लेने का जिक्र रोज़ होता था. कई बार ऐसा भी होता था कि राकेश आते आते रास्ते में ही दारु का दौर पूरा करके आता था. ऐसे रोज़ राकेश की बातों में कुछ गुस्सा भी दिखता, लेकिन अगले ही पल वह खुद को रोक भी लेता. ऐसे ही पीने के बाद शुरू हुई चर्चा में एक अधकही सी कहानी भी शामिल हुई, जिसके बारे में तफसील देने से पहले ही सैर खत्म हो गयी.
उसके बाद राकेश की मित्र-मंडली में कुछ और रिपोर्टर शामिल हुए जो पीने-पिलाने के शौकीन थे. नहीं पीने वालों में होने के कारण हम दोनों के रोज़ मिलने के कारण कम होने लगे और सैर के बहाने भी. नौकरी करते करते कब दस साल बीते, पता ही नहीं चला.
पिछले कुछ महीनों से राकेश और मेरा सैर का बहाना फिर से बनने लगा तो मैंने पाया कि उसने कुछ जयादा ही पीनी शुरू कर दी थी. लगभग रोज़. और पिछले एक महीने से तो ऐसा होने लगा था कि सैर के बाद उसने मेरी कार में बैठकर पीने के लिए कहा. मेरे लिए वह कोका कोला की बड़ी बोतल लाता. अकेले पीने की उसकी इच्छा को पता नहीं क्यों मैं लगातार नोट करता आ रहा था. कल रात को सैर करने के बाद जब राकेश ने पीने के इच्छा जताई तो मैंने कार में बैठकर पीने की बजाय घर चलने को कहा. गर्मी से बचने के लिए पत्नी और बच्चा शिमला गए हुए हैं. ऐसे में राकेश भी मान गया. शायद घर के माहौल का असर ही था कि पीने के दौरान राकेश की सुई घर-परिवार की जिम्मेदारी पर आ टिकी. उसने कहा कि उसे लग रहा है पिछले दस साल का उसके पास कोई रिकार्ड नहीं है कि कैसे यह वक्त बीत गया था. घर परिवार की जिम्मेदारी ढोते. दिन रात घर परिवार की सुख-सुविधाओं के बारे में सोचते करते. इस दौरान खुद के लिए सोचने का भी वक्त नहीं मिला. और यह सब करने के दौरान ही उसे लगने लगा है कि खुद उसके लिए कुछ नहीं हो रहा. ऐसे में एक जिद्दी बच्चे की तरह उसने मुझसे कहा-'मैं क्यों सोचूँ किसी के लिए॥मैं तो पीयूँगा??'
(शायद हम सब में एक बच्चा छिपा बैठा है कहीं.)

Monday, June 22, 2009

किवें ऐ बाई हरमन सिद्धू....!!!

वैसे तो 23 साल किसी को भूल जाने के लिए कम नहीं होते. और ऐसे किसी इंसान को भूलने के लिए जिसे आप ठीक से जानते भी न हों. लेकिन पता नहीं क्यों हरमन सिद्धू के मामले में मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ. हरमन को मैं कल पूरे 23 साल बाद मिला. हरमन और मैं पहली बार 10+1 में पहले दिन चंडीगढ़ के सरकारी कालेज में मिले थे. कितने दिन साथ साथ बैठे इसकी ठीक ठीक याद मुझे नहीं है, लेकिन पिछले हफ्ते नेट्वर्किंग साईट 'फेसबुक' में जब मैंने उसे देखा तो कालेज में पहले दिन की यादें ताजा हो गयी. याद आया कैसे छोटे से स्कूल से निकलकर पहले दिन इतने बड़े कालेज में जाना अपने ही शहर दिल अजनबी हो जाने का अहसास दे रहा था. पुराने दोस्तों में से किसी को ढूढती निगाहें इधर-उधर घूम रही थी. नोटिस बोर्ड पर क्लास का अता-पता लगाकर पहुंचा 'एलटी-1' यानी 'लेक्चर थिएटर-1'.
पहली बार सिनेमा हाल जैसी सीढियों जैसी क्लास में लम्बे-लम्बे बेंच पर बैठे मेरे जैसे नए लोग. आगे से तीसरी लाइन में बाएँ तरफ जाकर बैठ गया. सुबह आठ बजकर दस मिनट पर पहला लेक्चर था केमिस्ट्री का. लेक्चरर डाक्टर अत्तर सिंह अरोरा अभी तक पहुंचे नहीं थे. सीट पर बैठकर क्लास का जायजा लिया. बाएँ तरफ लड़कियां बैठी थी और अधिकतर लड़के दाईं तरफ बैठे थे. बाईं तरफ दीवार में एक बड़ी सी खिड़की खुलती थी जहाँ से बाहर एक छोटा सा मैदान था जिसके किनारे किनारे पीले रंग के फूल झूम रहे थे. बरसात का एक दौर सुबह ही गुजर चुका था.
इसके बाद मैं वापस क्लास में लौटा. मेरे साथ बाईं तरफ जो लड़का बैठा था उससे मैंने हाथ मिलाया. 'रविंदर', 'हरमन'!!! बस इतनी याद ही है मुझे उस दिन की और हरमन से पहली मुलाक़ात की. इसके बाद एक दिन और याद है जब कालेज की कैंटीन को बदल कर 'न्यू ब्लाक' के पास चली गयी थी और वहीँ एक दिन चाय लेने के लिए काउंटर की लाइन में खड़े हरमन का चेहरा मुझे याद है. उसके बाद वह साल और उसके अगला साल कहाँ गुजरा मुझे याद नहीं. बस यह याद है कि कालेज कि बिल्डिंग और क्रिकेट मैदान के बीच किनारे पर खड़े नीम्बू-पानी वाली रेहड़ी वाले के पास से गुजरने वाली कालेज की एकमात्र 'जींस वाली लड़की' को देखने के लिए हरमन मुझसे भी पहले पहुंचा होता था. हमारे कालेज हमारे एक ही लड़की थी उन दिनों जो जींस पहनने की हिम्मत करती थी. वैसे तो हमारा कालेज उन दिनों 'फार बायज' था लेकिन बी.काम कोर्स में लड़कियां भी थी. उन्हीं लड़कियों में से एक थी वो जींस वाली. उसका नाम हमें तो पता नहीं था लेकिन सीनियर्स से सुनकर पता चला था कि उसका नाम शायद किरन ढिल्लों था. सरदारनी थी. लम्बी और पतली सी. उसकी क्लास शायद दोपहर12:50 बजे ख़तम हो जाती थी और उस समय हमारा अंग्रेजी का पीरियड होता था. उसके के बाद बचता था एक पंजाबी का. सो, पंजाबी का लेक्चर 'बंक' करके हरमन मुझसे पहले नीम्बू-पानी की रेहड़ी पर पहुँचता..उसके पीछे पीछे मैं और अनुराग अबलाश.
किरन ढिल्लों दूर से ही न्यू ब्लाक से निकलती हुयी दिखती और धीरे धीरे से गेट से बाहर चली जाती. पीछे रह जाते हम. किरण ढिल्लों की जींस चर्चा का एक कारण यह भी था कि उन दिनों पंजाब में आतंकवाद की लहर चल रही थी. दो साल पहले ही '84' के दंगे होकर हटे थे. उसके चलते खाड़कू और सख्त हो गए थे और उन्होंने चंडीगढ़ समेत पूरे पंजाब में 'ड्रेस कोड' लागू कर दिया था जिसमें लड़कियों को सिर्फ सूट-सलवार पहनने और सर ढककर रखना भी शामिल था. ऐसे हालातों में किरन ढिल्लों का सरदारनी होकर जींस पहनना एक बड़ा साहसिक कदम था.
खैर, हरमन के बारे में फेसबुक पर पढ़ते ही मैंने उसे सन्देश भेजा और फिर मोबाईल नम्बर लिया और उससे मिलने जा पहुंचा. हरमन बदल गया था. पूरी तरह. मैंने उसे ऐसा देखने ही उम्मीद नहीं कि थी. सोचा था कि वह पहले की तरह उठकर गले मिलेगा और चंडीगढ़ के 'टिपिकल' तरीके से कहेगा 'किवें बाई जी'. पर ऐसा हुआ नहीं
हरमन 'व्हील चेयर' पर था. कोई 13 साल पहले एक कार दुर्घटना में उसकी रीढ़ की हड्डी में चोट लगी और शरीर के निचले हिस्से ने काम करना बंद कर दिया. पिछले 13 साल से हरमन व्हील चेयर पर है. लेकिन वह जो कर रहा है वह सभी नहीं कर सकते. हरमन 'अराईव सेफ' नाम की एक संस्था चला रहा है जो दुनियाभर परा सड़क दुर्घटनाओं को रोकने के लिए जागरूकता फैलाने का काम कर रही है. हरमन का नारा है 'अराईव सेफ' यानी सुरक्षित वापस घर पहुचें. हरमन इस दिशा में कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार ले चुका है. और अब देश की कई राज्य सरकारों के अफसरों को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि दुर्घटनाएं न सिर्फ वर्तमान और भविष्य को ख़त्म करती हैं, बल्कि यादों को भी ठेस पहुंचाती हैं...!!!
हरमन से मिलने के बाद मुझे याद आया कि किरन ढिल्लों को देखने के लिए मुझसे आगे भागता हुआ हरमन कितना सुंदर लगता था.