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Sunday, August 16, 2009

इरशाद आजकल...!!!

बात शायद 1997 की सर्दियों की है. चंडीगढ़ में जनसत्ता अखबार के दफ्तर में चाय की चुस्कियों के दौरान जब इरशाद ने बताया कि वह बॉम्बे जा रहा है फिल्मों के लिए लिखने के लिए, तो मैंने मजाक में कहा-'हाँ जा यार, हम भी फिल्म इंडस्ट्री में किसी को जानने लगेंगे. फिर तेरे साथ फोटो खिंचाकर खुश होंगे. पर साले तू कहीं हमने पहचानने से भी इनकार मत कर देना'. इरशाद ने पुख्ता आवाज़ में कहा था-'तुझे ऐसा लगता है?' मैंने क्या कहा था ये तो मुझे ठीक से याद नहीं, लेकिन इरशाद ने यह कहा था तेरे नाम से बुलाकर मिलूँगा.
ऐसा हुआ भी. कल मुझे जब एक पुराने साथी का फोन आया कि इरशाद आया हुआ है चंडीगढ़. कल आ जाना एक फंक्शन में, वहीँ मिलेंगे. जब मैं वहाँ पहुंचा तब तक इरशाद पहुंचा नहीं था. हम लोग बाहर ही खड़े होकर उसका इंतज़ार करने लगे. एक घंटा लेट था इरशाद. हम बातें करने लगे की इन लोगों के साथ यह समस्या होती ही है, देर से आने की. खैर, इरशाद की गाडी दूर सड़क पर ही रुक गयी. उसमें से इरशाद और इम्तिआज़ निकले और पैदल चलते हुए आने लगे. हमें देखते ही इरशाद तेजी से आया और दूर से ही बोला-'और रवि, क्या हाल है?' इरशाद ने बारह साल पहले कही बात को सिद्ध कर दिया.
इसके बाद करीब एक घंटा साथ रहे और ढेर सी बातें की. बाकी दोस्तों के साथ-साथ मैंने भी कोशिश कि हम दोनों के बीच कहीं वह दीवार मिल जाए जिससे मैं महसूस कर सकूं की मेरे साथ बैठा इरशाद अब 'जब वी मेट' और 'लव आजकल' जैसी कामयाब फिल्मों का गीतकार इरशाद कामिल है और उसके साथ इन फिल्मों का डायरेक्टर इम्तिआज़ अली है. बहुत कोशिशों के बाद मुझे मानना ही पड़ा कि इरशाद आज भी कल वाला वही इरशाद है जिसके खाते से हम चाय मंगवा कर पीते रहते थे और बाद में इरशाद केन्टीन वाले कौशल के साथ हिसाब को लेकर बड़ी तमीज के साथ बहस करता था.
और इरशाद ने बड़ी साफ़गोई से यह भी बता दिया कि वह पहले भी यहाँ आता रहा है, लेकिन दोस्तों से मिलने का वक़्त नहीं निकाल पाया. हाँ, अपने घर मलेरकोटला जरूर गया. 'चमेली' और 'जब वी मेट' के बाद बाद भी और अब 'लव आजकल' की कामयाबी के बाद भी. और उससे मिलने के बाद मुझे लगा कि कुछ लोग कभी नहीं बदलते. कल भी वही थे, और आज भी. मैंने उससे पूछा यहाँ के दोस्तों को याद क्यों रखा हुआ है? तो इरशाद का जवाब था-जो गीत सुन रहे हो न, उनके लिए शब्दों के झोली यहीं से भरता हूँ.
खैर जाते जाते इरशाद ने मुझे यह भी बताया कि जनसत्ता अखबार से मिला कुल 327 रुपये का आखिरी चेक फ्रेम करवा कर रखा हुआ है. और मैंने भी उसे यह बता ही दिया कि केन्टीन वाले कौशल ने आज भी तुम्हारा 21 रूपये का हिसाब रखा हुआ है. (उसी चाय का बिल जो हम दोस्तों ने पी थी जब एक नाटक की कवरेज़ के लिए इरशाद टैगोर थिएटर गया हुआ था.)