UA-44034069-1

Wednesday, November 24, 2010

राँग नम्बर कभी बिज़ी नहीं मिलता

उत्तर प्रदेश की एक खाप पंचायत का फरमान आया है की शादी से पहले गाँव की लड़कियों को मोबाईल फोन इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी जायेगी. इसके पीछे समाज के ठेकेदारों का यह तर्क है कि लड़कियां मोबाईल पर पता नहीं क्या खुसर-पुसर करती रहती हैं, पता ही नहीं चलता. मोबाईल फोन से होने वाले नुक्सान का पता उस दिन चलता है जिस दिन लड़की अपनी पसंद के लड़के से शादी करने के लिए घर से भाग जाती है. दिल चाहता है ऐसा नायाब "वट एन आइडिया, सर जी" देने वाले के दर्शन जरुर करने जाऊं. इन रोशन दिमागों से कोई पूछे लैला कि भला लैला के बाप ने भला कौन सा मोबाईल फोन लेकर दे रखा था उसे कि मजनू के साथ लेट नाईट चैटिंग करती थी और बाप को मालूम ही न हुआ कि लैला के फोनबुक में मजनू का नाम किसी लड़की के नाम से ऐड था.
वैसे लगभग सभी समाज शास्त्रियों की तरह इस बात से इतेफाक रखता हूँ की मोबाईल फोन के इस्तेमाल से रिश्तों में धोखाधड़ी के मामले बढे हैं. कौन किसे क्या सन्देश भेज रहा है, इसका इल्म फोन के मालिक को ही हो सकता है. इसके साथ ही यह बात भी सच है कि मोबाईल फोन ने ऐसी बातों को कहना भी आसान कर दिया है जिन्हें कहने के लिए पहले "हिमत -ऐ -मर्दा " का अहसास हो जाया करता था. ऐसे -वैसे सभी उलटे -सीधे , निहायत घटिया और बचकाने सन्देश क्लास में पढने वाली लड़की, दफ्तर में काम करने वाली या पड़ोस में रहने वाली को भेजने के लिए बस 'सेंड ' का बटन दबाना है और काम ख़तम. गाल पर 'वन टाईट सलाप ' पड़ने का खतरा ख़त्म. और वैसे भी मोबैल फोन 'मनेर्स' ने लड़कियों को भी कुछ ज्यादा ही तमीजदार बना दिया है. ऐसे -वैसे किसी एसएमएस का बुरा मनाने की बजाये वे उसे तुरंत आगे 'फॉरवर्ड' करना पसंद करती हैं. 'नेटवर्किंग ..!!'
वैसे मोबाईल फोन बैन कर देने का फरमान सुनाने वाली पंचायत को गलत कहने वालों को भी मैं एक किस्सा सुना दूं. चंडीगढ़ के सेक्टर 35 का किस्सा है सुबह 10 बजे का. एक लड़का और लड़की बैठे थे. तभी लड़की का मोबाईल फोन बजा. 'ऍक्सक्युज मी' कहकर लड़की थोडा सा दूर गयी और फोन सुना. मैं पास ही खड़ा था सो सुन पाया. लड़की ने फोन करने वाले लड़के से कहा कि वह अभी घर में है, उसकी माँ अभी घर से निकलने नहीं दे रही, इसलिए वह एक घंटे बाद काफ्फी शॉप में मिलेगी. फोन बंदकर वापस लड़के के पास पहुंची और बोली-"ममा का फोन था, कह रही थी एक घंटे में घर जरुर आ जाना ".
ऐसी बातों को सुनकर लगता है कि वही दिन अछे थे लैंड लाइन वाले. घर के सब सभी लोगों का एक ही नंबर. कोई प्राइवेट या पर्सनल काल की गुंजाइश ही नहीं थी. किसी की काल कोई भी उठा लेता था और फोन की घंटी इतनी ऊंची आवाज़ में होती थी कि पडोसी आकर बता देते थे कि तुम्हारा फोन बोल रहा है, उठा क्यों नहीं रहे. हमारे मोह्हले में रहने वाले एक अंकल का किस्सा भी ऐसे ही टेलेफोन से जुदा है. उनके दोनों बेटे शहर से बाहर रहते थे. वे देर रात गए फोन करके हाल चाल पूछते थे. और उसके बाद अंकल सारे मोह्हले को बताते थे कि रात को उनके बेटे का "टेलीफून ' आया था, वो बाहर सैर कर रहे थे , जब उन्हें टेलीफून की घंटी सुनी तो भागे -भागे गए भी, लेकिन टेलीफून कट गया. वो बहुत देर तक इस इंतज़ार में बैठे रहे कि टेलीफून फिर से आएगा लेकिन टेलीफून नहीं आया. फिर वो पास के एसटीडी बूथ से बेटे को टेलीफून करने गए लेकिन रात को 11 बजे के बाद एसटीडी के रेट आधे होने का फायदा उठा कर लम्बी बात करने वाले लोग भी टेलीफून करने आये थे.
खैर , मोबाईल फोन ने ये समस्या तो ख़तम कर दी. अब हर किसी के पास अपने दो -दो नंबर हैं, एक पर्सनल और दूसरा वैरी पर्सनल.

Sunday, September 5, 2010

मेरी बंदगी क़बूल करने को कोई खुदा नहीं उठता ..!!

यहाँ के सरकारी अस्पताल के गायनी वार्ड के बाहर पर्ची बनवाने की लाइन में खड़ी मजदूर औरत बुलबुल के वहीँ खड़े-खड़े एक बच्ची के जन्म देने और नीचे फर्श पर सर के बल गिरी बच्ची की मौत की जांच होने को लेकर कुछ तस्सली हुई कि शुक्र है एक बच्ची की जान की कीमत किसी ने तो आंकने की कोशिश की..और वह भी एक गरीब मजदूर औरत की बच्ची.
लेकिन, वहां बुलंदशहर के पास के उस कसबे के अस्पताल में पैदा हुयी उस बच्ची की मौत पर किसी ने मातम नहीं मनाया जिसे बचाने की कोशिश में उस गायनी डाक्टर ने लेबर रूम में कड़ी मशक्कत की. उस मासूम बच्ची ने लाजिमी तौर पर आदम जात लोगों से यह उम्मीद तो की ही होगी कि उसे उसकी माँ के सीने से लगने का एक मौका तो दिया ही जायेगा....पर शायद उसकी माँ के साथ अस्पताल आयी उस औरत जात इंसान को शायद यह मंज़ूर नहीं था कि उसके घर में एक लड़की आये जो बड़ी होकर उसकी ही तरह दुःख तकलीफ पाए....नौ महीने तक उसे लिए घूमने और उसे जनम देने वाली का क्या....भूल जायेगी और तीन महीने में.
मैं उसे नहीं जानता था, उसकी माँ 22 साल की पूजा को भी नहीं !! प्राईमी, हिमोलिटिक अनीमिया, अज्मैटिक !!...मुझे जब लेबर रूम से कॉल आयी तो मैं उससे मिला...'डिस्ट्रेस' में थी. 'मिकोनियम' पास कर दिया था...हुयी तो नोर्मल डिलीवरी से ही पर मैंने देखा कि बच्ची को इन्टेंसिव केअर की जरूरत थी. गायनेकोलोजिस्ट से सलाह के बाद मैंने उसके अटेंडेंट को उसे बुलंद शहर ले जाने की सलाह दी.
सुबह खबर आयी कि बच्ची बच नहीं पायी...मुझे कुछ हैरानी हुयी, इसलिए कि बच्ची डिस्ट्रेस में जरूर थी लेकिन इतनी क्रिटिकल भी नहीं थी. बाद में स्टाफ ने बताया कि बच्ची को गाडी में ले जाते हुए तो देखा था, और यह भी कि बच्ची की 'बेचारी' दादी बच्ची को चम्मच से दूध पिलाने की कोशिश भी कर रही थी...!! मैं केस समझ चुका था..!! वार्ड में राउंड के दौरान मैंने पूजा को बेबसी भरी आँखों से लेबर रूम की तरफ टकटकी लगाकर देखते हुए पाया. इस उम्मीद में कि शायद उधर से कोई मासूम सी किलकारी सुन जाए..!! पर अफ़सोस..!!
और डाक्टर अनुराग, पता नहीं क्यों मुझे आपकी याद बहुत आयी जब पूजा को डिस्चार्ज करवाकर ले जा रही उसकी सास ने अपनी बेटी की मौत का मातम मना रही एक माँ के आंसूओं को ड्रामा बता कर उसे डांट दिया...लेबर रूम से किसी आवाज़ सुन जाने की आखिरी उम्मीद पर पीछे मुड़-मुड़कर देखती पूजा को मैं उस वक़्त भागकर पकड़ने से खुद को रोक नहीं पाया जब मैंने देखा, उसके परिवार के लोग उसे वहीँ सड़क किनारे छोड़कर गाडी भगा ले गए...धूल के गुब्बार में अज्मैटिक अटैक का शिकार होकर बेदम होती एक और माँ..!!

Saturday, April 24, 2010

चुप रहेगी अगर जुबान-ऐ-खंजर, लहू पुकारेगा आस्तीन का...

पीएमटी एक्साम देकर सेंटर से बाहर निकलते ही डीएवी कल कोलेज के बाहर एक पेड़ के नीचे खड़े कुछ लोगों का वह खुसर-पुसर करता झुण्ड मुझे अब तक याद है..एक बड़ी सी गाड़ी के आसपास एक सांवले और मोटे से आदमी से कुछ बच्चों के मां-बाप पैसों के बारे में बात कर रहे थे. वह आदमी बदले में अपना विजिटिंग कार्ड दे रहा था. बाद में पता चला कि वह कर्नाटका के एक प्राईवेट मेडिकल कोलेज का एजेंट था. उन दिनों वह मेडिकल कोलेज में दाखिले के आठ लाख मांग रहा था. चूँकि उन दिनों यह प्राईवेट मेडिकल कोलेज खोलने का धंधा इधर उत्तर भारत के पैसे वालों और नेताओं को नहीं सूझा था. सो हमारे यहाँ चंडीगढ़ और पंजाब के अधिकतर बच्चे कर्नाटका के मेडिकल और इंजिनीयरिंग कोलेजों में ही जाते थे. वहीँ फीस कुछ कम थी. उसके कुछ दिनों बाद चंडीगढ़ के अखबारों में रशिया में मास्को से एमबीबीएस में दाखिले के विज्ञापन भी बहुत छपे. मेरे भी दो दोस्त मास्को गए.
हमारे पास न तो पैसा था और न ही मां-बाप में मुझे विदेश भेजने के लिए जोड़-जुगाड़ का मादा. पर भगवान् की मेहरबानी ही कहूँगा कि पीएमटी के पहले ही अटेम्प्ट में तुक्का लग गया और दाखिला हो गया, नहीं तो....!!
इसीलिए कल जब अखबार में मेडिकल काउन्सिल के चीफ केतन देसाई की गिरफ्तारी की खबर पढ़ी, मुझे कोई ख़ास हैरानी नहीं हुयी. हैरानी इस बात पर हुयी कि इतने साल बाद यह ड्रामा क्यों? क्या इसमें भी वही रटा-रटाया तर्क है कि किसको हिस्सा नहीं पहुंचा जो केतन देसी को पकडवा दिया? यह बात देश भर के सारे डॉक्टर, उनके मां-बाप, देश भर में चल रहे मेडिकल कोलेज और सरकार भी जानती है कि देश भर के प्राईवेट मेडिकल कोलेजों में लाखों रुपये कपिटेशन फीस ली जाती है, और सरेआम ली जाती है, तो यह कैसे हो सकता है कि प्राईवेट मेडिकल कोलेजों को परमिशन बिना कुछ लिए-दिए मिल जाती होगी? केतन देसाई ने दो हज़ार करोड़ रूपये ऐसे ही तो इकट्ठे नहीं किये? यह ज्ञान सागर मेडिकल कोलेज वाले दो करोड़ रूपये लेकर केतन देसाई के पास पीजी कोर्स चालने की परमिशन लेने ही गए थे. यह मेडिकल कोलेज चंडीगढ़ के नजदीक ही है, पटियाला जाते समय बाहर से बिल्डिंग देखने का मौका भी मिला, पता नहीं इतना पैसा कहाँ से लगा रखा है?? पूरा तो हो ही जाना है. पंजाब के लगभग सभी पोलिटिकल लोगों ने मेडिकल कोलेज, इंजिनीयरिंग और मैनेजमेंट कोलेज खोल लिए हैं. पहले कहते थे कि साउथ वाले पोलिटिशियन धंधे के लिए या तो मंदिर खोलते हैं या मेडिकल और इंजीनियरिंग कोलेज. अब हमारे इलाके के सारे सरदारों ने या तो मेडिकल, नर्सिंग और एमबीऐ के कोलिज खोल लिए हैं या फिर प्रोपर्टी डीलर के दफ्तर.,
केंद्रीय हेल्थ मिनिस्टर रहे डाक्टर अम्बु मणि रामदोस से एक बार मिलने का मौका मिला था, तो मैंने उनसे देश में डाक्टरों की कमी और करीब दो लाख ऐसे डाक्टरों के मुद्दे पर बात की थी जिन्होंने विदेश से एमबीबीएस की है, लेकिन मेडिकल काउन्सिल ऑफ़ इंडिया ने उन्हें रजिस्ट्रेशन देने के लिए टेस्ट रखा हुआ है. उनका जवाब था , 'आई विल सी इट'. अबके हेल्थ मिनिस्टर गुलाम नबी आज़ाद भी येही कहते फिर रहे हैं कि देश में डाक्टरों की कमी पूरी करने के लिए पीजी सीटें बढ़ा रहे हैं. उन्हें कोई बता दे कि दिल्ली के युसूफ सराय इलाके के पीछे गौतम नगर है, जहाँ रशिया से एमबीबीएस करके आये हज़ारों युवा डाक्टर पेईंग गेस्ट रह रहे हैं. दिल्ली के प्राईवेट नर्सिंग होम में सिर्फ दस-दस हज़ार रूपये में आरएमओ लगे हैं. रात को ड्यूटी करते हैं, दिन में मेडिकल काउन्सिल के 'ऍफ़एमजीई' के टेस्ट की कोचिंग लेते हैं. साल में दो बार होने वाले इस टेस्ट में कई हज़ार डाक्टर हिस्सा लेते हैं और पास होते हैं सिर्फ आठ से नौ परसेंट.
यह बात भी मुझे किसी ख़ास ने बतायी कि प्राईवेट मेडिकल कालेजों की लोबी के चलते मेडिकल काउन्सिल ने यह टेस्ट इतना मुश्किल रखा है कि ऐमस से एमडी कर चुके किसी डाक्टर से भी पास न हो सके. येही कारण है कि यहाँ की मेडिकल कोलेज लोबी विदेशों से डिग्री लेने वालों की बजाये यहाँ दाखिला लेने को मजबूर कर रही है ताकि कैपिटेशन फीस मिले. केतन देसाई की गिरफ्तारी से यह पहलू भी साफ हो गया है.
सरकार को अब शायद यह समझ आ जाये कि इन डाक्टरों को रजिस्ट्रेशन देने में मेडिकल काउन्सिल में हो रही धांधली को रोक कर वह गावों में डाक्टरों के कमी पूरी कर सके.

Saturday, February 27, 2010

अब दुआ अर्श पे जाती है असर लाने को...!!

कल ही मेरी नज़र उस पर पड़ी. हालांकि इस इलाके के बाकी सभी लोगों की तरह मेरे आने-जाने का रास्ता भी वही एक है, लेकिन दिनभर का रूटीन दिमाग में लेकर सुबह काम पर भागने की जल्दी में मैंने उसकी और ध्यान नहीं दिया और रात देर गए लौटने के समय तक वह जा चुका होता है. लेकिन शनिवार की सुबह जब बेटे को स्कूल छोड़ने निकला तो मैंने उसे देखा. घरों के इस तरफ के ब्लोक से बाहर निकलने और मेन सड़क मिलने के मोड़ पर पार्क के कोने में वह खड़ा था. नीचे जमीन पर छोटी-छोटी शीशियाँ राखी थी जिनमें से एक-आध में कुछ तेलनुमा भरा हुआ नज़र आ रहा था. और पीछे पार्क की रेलिंग पर उसने एक बैनर बाँध रखा था जिसपर 'तेल मालिश, जोड़ों के दर्द का इलाज़' लिखा हुआ था.
ध्यान उसपर इस लिए नहीं गया कि शहर भर में जगह जगह खुले फिजियोथेरेपी सेंटरों के रहते हुए भला इसने इतना बड़ा रिस्क कैसे लिया ऐसे बिजनेस का, और वह भी ऐसे इलाके में जहाँ घरों के चार ब्लॉक में अस्पतालों में जान पहचान रखने वाले मुझ समेत तीन डॉक्टर और सरकारी अस्पतालों में काम करने वाली कम से कम चार नर्सें रहती हैं जो पर्ची बनवाने और लाइन में लगने के झंझट से बचाने में कारगर हैं. और यह भी कि जहाँ इस बूढ़े ने यह बिजनेस शुरू किया है, उसके बा-मुश्किल आधा किलोमीटर दो नर्सिंग होम भी हैं जहाँ आर्थोपेडिक डिपार्टमेंट ठीकठाक हैं.
मेरा ध्यान उस साठ साल के बूढ़े की और इसलिए गया क्योंकि एक तो वह मेरे हिसाब से कुछ ज्यादा ही जल्दी काम पर आ गया था. मेरे ख्याल से घुटनों-जोड़ों के दर्द वाले बुजुर्ग अच्छी-खासी धूप निकलने के बाद ही घरों से निकलकर यहाँ सरेआम घुटनों की मालिश कराने आयेंगे...और दूसरी बात यह कि वह बूढा आराम से बैठकर ग्राहकों का इंतज़ार करने की बजाय खड़ा होकर हर आने-जाने वाले को हाथ उठा कर सलाम कर रहा था. पता नहीं क्यों उसका यह तरीका दिमाग में कहीं बैठ गया. सोचा शायद मार्केटिंग का तरीका है कि लोगों की नज़रों में आया जाये और फिर बिजनेस करे.
लेकिन मन माना नहीं. बच्चे को स्कूल छोड़कर जब वापस लौटा तो भी उस बूढ़े को उसी अंदाज में पाया. हर आने-जाने वाले को सलाम करते हुए. ऑफिस के लिए जब निकला उस समय तक सड़क पर भीड़ कम हो चुकी थी. मेरी गाडी को देखते ही उसने फिर उसी अंदाज में सलाम किया तो मैं रह नहीं सका और उसतक जा पहुंचा. मेरा सवाल-यह हर किसी को सलाम करके ग्राहक बनाने का तरीका क्या काम करेगा? जवाब-क्या आपने मेरे पास ग्राहकों की भीड़ देखी? नहीं..!! मैं सलाम नहीं करता..मैं यहाँ से गुजरें वालों के लिए दुआ मांगता हूँ कि उनके हाथ-पाँव सलामत रहें..शाम को सलामती से लौट आयें..जिन बच्चों के पास बुजुर्गों के पाँव दबाने की फुर्सत नहीं है, मैं तो उनके लिए बैठा हूँ...!!
क्या आपके पास है कोई जवाब??
एक और ऐसी ही घटना मुझे याद आयी है. कोई दस साल पहले की बात है. शाम को दिन ढले ऑफिस जाते समय ऑफिस के मोड़ से कुछ पहले पूर्वी दिशा में लगे पोपलर के पेड़ों की ओर मुंह ओर छिपते हुए सूरज की ओर पीठ किये हुए एक गरीब सा दिखने वाला बूढा आसमान की ओर बाहें उठाये कुछ बोल रहा था. पेड़ों से बात करने वाले किसी चरवाहे जैसी किसी कहानी का पात्र. एक महीना लगातार देखने के बाद मुझसे नहीं रहा गया. गाडी ऑफिस में पार्क करके सैर करने के बहाने मैं उसके पास पहुंचा...बूढा सचमुच पेड़ों से बात कर रहा था..'तुम महान हो..हम से बड़े हो..इन बच्चों को सांस लेने लायक साफ़ हवा देते रहना...हर मौसम में, मेरे बाद भी !!!