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Wednesday, November 24, 2010

राँग नम्बर कभी बिज़ी नहीं मिलता

उत्तर प्रदेश की एक खाप पंचायत का फरमान आया है की शादी से पहले गाँव की लड़कियों को मोबाईल फोन इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी जायेगी. इसके पीछे समाज के ठेकेदारों का यह तर्क है कि लड़कियां मोबाईल पर पता नहीं क्या खुसर-पुसर करती रहती हैं, पता ही नहीं चलता. मोबाईल फोन से होने वाले नुक्सान का पता उस दिन चलता है जिस दिन लड़की अपनी पसंद के लड़के से शादी करने के लिए घर से भाग जाती है. दिल चाहता है ऐसा नायाब "वट एन आइडिया, सर जी" देने वाले के दर्शन जरुर करने जाऊं. इन रोशन दिमागों से कोई पूछे लैला कि भला लैला के बाप ने भला कौन सा मोबाईल फोन लेकर दे रखा था उसे कि मजनू के साथ लेट नाईट चैटिंग करती थी और बाप को मालूम ही न हुआ कि लैला के फोनबुक में मजनू का नाम किसी लड़की के नाम से ऐड था.
वैसे लगभग सभी समाज शास्त्रियों की तरह इस बात से इतेफाक रखता हूँ की मोबाईल फोन के इस्तेमाल से रिश्तों में धोखाधड़ी के मामले बढे हैं. कौन किसे क्या सन्देश भेज रहा है, इसका इल्म फोन के मालिक को ही हो सकता है. इसके साथ ही यह बात भी सच है कि मोबाईल फोन ने ऐसी बातों को कहना भी आसान कर दिया है जिन्हें कहने के लिए पहले "हिमत -ऐ -मर्दा " का अहसास हो जाया करता था. ऐसे -वैसे सभी उलटे -सीधे , निहायत घटिया और बचकाने सन्देश क्लास में पढने वाली लड़की, दफ्तर में काम करने वाली या पड़ोस में रहने वाली को भेजने के लिए बस 'सेंड ' का बटन दबाना है और काम ख़तम. गाल पर 'वन टाईट सलाप ' पड़ने का खतरा ख़त्म. और वैसे भी मोबैल फोन 'मनेर्स' ने लड़कियों को भी कुछ ज्यादा ही तमीजदार बना दिया है. ऐसे -वैसे किसी एसएमएस का बुरा मनाने की बजाये वे उसे तुरंत आगे 'फॉरवर्ड' करना पसंद करती हैं. 'नेटवर्किंग ..!!'
वैसे मोबाईल फोन बैन कर देने का फरमान सुनाने वाली पंचायत को गलत कहने वालों को भी मैं एक किस्सा सुना दूं. चंडीगढ़ के सेक्टर 35 का किस्सा है सुबह 10 बजे का. एक लड़का और लड़की बैठे थे. तभी लड़की का मोबाईल फोन बजा. 'ऍक्सक्युज मी' कहकर लड़की थोडा सा दूर गयी और फोन सुना. मैं पास ही खड़ा था सो सुन पाया. लड़की ने फोन करने वाले लड़के से कहा कि वह अभी घर में है, उसकी माँ अभी घर से निकलने नहीं दे रही, इसलिए वह एक घंटे बाद काफ्फी शॉप में मिलेगी. फोन बंदकर वापस लड़के के पास पहुंची और बोली-"ममा का फोन था, कह रही थी एक घंटे में घर जरुर आ जाना ".
ऐसी बातों को सुनकर लगता है कि वही दिन अछे थे लैंड लाइन वाले. घर के सब सभी लोगों का एक ही नंबर. कोई प्राइवेट या पर्सनल काल की गुंजाइश ही नहीं थी. किसी की काल कोई भी उठा लेता था और फोन की घंटी इतनी ऊंची आवाज़ में होती थी कि पडोसी आकर बता देते थे कि तुम्हारा फोन बोल रहा है, उठा क्यों नहीं रहे. हमारे मोह्हले में रहने वाले एक अंकल का किस्सा भी ऐसे ही टेलेफोन से जुदा है. उनके दोनों बेटे शहर से बाहर रहते थे. वे देर रात गए फोन करके हाल चाल पूछते थे. और उसके बाद अंकल सारे मोह्हले को बताते थे कि रात को उनके बेटे का "टेलीफून ' आया था, वो बाहर सैर कर रहे थे , जब उन्हें टेलीफून की घंटी सुनी तो भागे -भागे गए भी, लेकिन टेलीफून कट गया. वो बहुत देर तक इस इंतज़ार में बैठे रहे कि टेलीफून फिर से आएगा लेकिन टेलीफून नहीं आया. फिर वो पास के एसटीडी बूथ से बेटे को टेलीफून करने गए लेकिन रात को 11 बजे के बाद एसटीडी के रेट आधे होने का फायदा उठा कर लम्बी बात करने वाले लोग भी टेलीफून करने आये थे.
खैर , मोबाईल फोन ने ये समस्या तो ख़तम कर दी. अब हर किसी के पास अपने दो -दो नंबर हैं, एक पर्सनल और दूसरा वैरी पर्सनल.