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Saturday, January 29, 2011

सर्दी में भी गर्मी का अहसास, चाचू मुझे पसीने क्यों आ रहे हैं..!!

कड़ाके की सर्दी की सुबह ओपीडी खुलने के पहले ही फोन आ गया कि रात को हुई डिलीवरी के चार्जेज कम करने को लेकर पेशंट के साथ आये लोग शोर मचा रहे हैं. पूछने पर पता चला कि लोग हैं तो पास के गाँव रबुपुरा के अच्छे खाते-पीते परिवार से लेकिन पहला बच्चा था, 'लड़की' पैदा होने के कारण परिवार का उत्साह ख़त्म हो गया है और इसलिए हॉस्पिटल चार्जेस कम करने की मांग कर रहे हैं. हैरानी हुयी सुनकर. इसलिए भी कि अस्पताल के चार्जेस तो पहले से ही चेरिटेबल हैं और इसलिए भी कि लड़की के पैदा होते ही इन्हें बोझ लगने लगी तो आगे इसके साथ कैसा सलूक करेंगे? और पैसे कम करने की मांग भी ऐसे लोग कर रहे हैं जिनके घर में कोई कमी नहीं है और परिवार में पहला बच्चा आया है. लड़की के लक्ष्मी होने, लड़की से ही परिवार चलने और उसकी दादी को 'तुम भी तो लड़की पैदा हुई थी' जैसे जुमले सुनाने का जब कोई असर नहीं हुआ तो मैंने 'बैड चार्जेस' छोड़ देने को कहा.
और आज फिर वैसा ही केस. गरीब आदमी हैं पास के गाँव वैना के. मजदूरी करते हैं. फुल टर्म प्रेगनेंसी, आज तक कोई चेकअप नहीं, कोई अल्ट्रा साउंड नहीं, कोई दवा नहीं. क्यों? 'साहेब, गरीब लोग हैं, खाने को भी पैसा नहीं है तो दवा कहाँ से करते. औरत की हालत ऐसी मरियल कि देखकर लगा ही नहीं कि फुल टर्म प्रेगनेंसी भी है. अनोरेक्सिक, अनिमिक.
हैरानी तो तब हुई जब लेबर रूम में पहला बच्चा एक लड़की होने के बाद जब डॉक्टर संजना ने प्लेसेंटा आउट करने के लिए सर्विक्स टटोला तो एक और बच्चे की 'क्राउनिंग' हो गयी. एक लड़का और एक लड़की, दोनों कम वज़न के. अस्पताल के मेनेजर हैं जीतू भाई, उनके पिता जी ने भी सिफारिश कर दी कि इतने गरीब हैं कि सुबह खाना खा लें तो पता नहीं कि रात को मिले कि नहीं. 'पुअर फ्री' कर दिया. डिस्चार्ज कार्ड देखा तो इस गरीब परिवार की हिम्मत देखकर पसीना आ गया. पहले से तीन लड़कियां, दो लड़के हैं और एक लड़की और लड़का अब आ गया...लेकिन इतने बच्चों और खासकर चार 'लड़कियों' को पालने की फ़िक्र का चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं. मुझे कल वाले केस के चार्जेस कम करने का बहुत मलाल हो रहा है.