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Sunday, February 26, 2012

अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो...!!!

करीब एक घंटे तक सभी कोशिशें करने के बाद जब हम उस नवजात सईनोटिक बच्ची को संभालने में कामयाब नहीं हुए तो उसे बुलंदशहर रेफेर करने का फैसला किया. रात को एक बजे उस बच्ची के परिवार के लोगों को यह बताने भर की देर ही थी रोना-धोना मच गया कहीं से गाडी का इंतज़ाम किया गया. ऑक्सीजन लगा कर उसे रेफेर करके हम गायनी वार्ड के आगे से गुजर रहे थे कि किसी के जोर जोर से बोलने की आवाज सुनकर रुके. बच्ची का दादा ऊंची आवाज में डाक्टरों पर लापरवाही बरतने का इलज़ाम लगने में जुटा था. बकौल उसके डाक्टरों की लापरवाही से बच्चे के पेट में पानी चला गया. शायद उसने सुन लिया था कि कोई सक्शन मशीन होती है जिस से बच्चे के पेट से पानी निकाला गया था.
बूढा मेडिकल की इस थ्योरी को समझने को कतई तैयार नहीं था कि दाई के चक्कर में पड़कर आठ घंटे देरी से अस्पताल पहुंचने का येही खामियाजा होता है जिसे हम 'ओब्सट्रेकटिव डिलेवरी' कहते हैं और बच्चे की जान पे बन आती है. लेकिन बूढ़े को यह समझाना बेकार था. डीसी दत्ता की 'प्रिंसिपल्स ऑफ गायनी एंड ओब्स' की मजबूरियां हमारे लिए थी, उसके लिए नहीं. वो शोर मचाता रहा और इस गलती के लिए अस्पताल की ईंट से ईंट बजा देने की धमकियों पर उतर आया था.
हम चले आये. बाद में स्टाफ में से किसी ने सुना कि वो उसके गाँव के कुछ आवारा किस्म के लड़कों को अगली सुबह अस्पताल आकर डाक्टरों को सबक सीखाने के लिए उकसा रहा था. इधर रात को बुलंदशहर में बच्चों के नामी अस्पताल तक पहुँचने के बाद बच्ची को बचाया नहीं जा सका. कोंजेनईटल मिट्रल वाल्व स्टेनोसिस शायद इसका कारण रहा हो. खैर, अगली सुबह ओपीडी के बाहर शोर सुनकर जब मैं वहां पहुंचा तो पाया कि बूढा और उसके साथ आये कुछ लोग अस्पताल के मैनेजर जीतू भाई से बहस कर रहे थे. जब तक मैं वहां पहुंचा, जीतू भाई जोर जोर से यह कहने की कोशिश कर रहे थे कि डाक्टरों के लिए हर बच्चा कीमती है. उन्होंने कोशिश की लेकिन 'छोरी' (लड़की) नहीं बची तो क्या करें. बूढा अचानक बोला-क्या कहा छोरी? वो छोरा ना था? जीतू ने बताया कि लड़की पैदा हुयी थी. इतना सुनना था कि बूढ़े ने अचानक माथे में हाथ मारा और बोला-अरे, छोरी थी तो बताया काहे न? मरन दे न फिर तो, काहे का झगडा. छोरी के मरने का कौन सा दुःख.छोरी तो भागवान की मरे है.