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Tuesday, October 13, 2015

"ओये, ए तां काल्लु ऐ.....!!"

'पापा, आपको यकीन है?'
उसके कहने का मतलब आपको विश्वास नहीं होगा की क्या हो रहा है?  मैंने पूछा क्या हो रहा है?
"हमारे घर के पीछे वाले पार्क में 'थ्री' रावण बन भी गए.…!! दशहरे वाले रावण। ....!!
रावण मतलब दशहरा, बस… !! लेकिन अचरज़ बरकरार था. वही सदियों से बच्चों में पाया जाने वाला।
मुझे याद आया कि कैसे हम बच्चों को रावण के पुतले बनते देखने का चाव हुआ करता था।  हमारे घर से थोड़ी दूर सरकारी स्कूल के पास रामलीला हुआ करती थी और वहीँ पास ही रावण के पुतले बना करते थे. हम जल्दी से होमवर्क निपटा कर भागते हुए 'रावण' बनते हुए देखने जाया करते थे।  रात को रामलीला देखने जाने के लिए भी पापा को मना लिया करते थे, वो भी इस शर्त पर कि दस बजे तक वापस आ जाएंगे. असल में उन दिनों पंजाब में आतंकवाद का दौर था और कुछ चरमपंथी इस हिन्दू विचारधारा के खिलाफ थे।  रामलीला के इर्द-गिर्द काफी सिक्योरिटी हुआ करती थी. इस लिए कभी भी रामलीला का कोई भी एपिसोड पूरा देखने का मौका नहीं मिल पाया। घर वापस आ जाया करते थे लेकिन कान उधर ही लगे रहते थे. लाऊडस्पीकर पर आती 'श्री राजा रामचन्द्र की जय मनाओ आज' वाले गीत तक जागने की कोशिश करते रहते ताकि विश्वास हो जाए कि अब रामलीला खत्म हो गयी है और सभी बच्चे घर आ गए हैं.
रामलीला से याद आई एक घटना। हरियाणा के रोहतक की. कॉलेज के दिनों का वाक्या है. एक दोस्त अनिल रोहतक के वैश्य पॉलीटेक्निक में पढता था. उस से बात हुयी की दशहरे की छुटियों में घर आने का क्या प्रोग्राम है? प्लान बना कि हम कर्नाटका एक्सप्रेस से निजामुद्दीन उतरेंगे और वहां से बस लेकर रोहतक आ जायेंगे और फिर एक-दो दिन मस्ती करके चंडीगढ़ चलेंगे.
प्लान के हिसाब से रोहतक जा पहुंचे। शाम को ढाबे पर खाना खाकर घूमते हुए अनिल के ही एक दोस्त से मिलने 'झांगी मोहल्ले' जा पहुंचे. बातें करते करते रात हो गयी. दोस्त हमें ऑटो तक छोड़ने निकला ही था कि मोहल्ले की रामलीला पर नज़र पड़ी,  रुक गये. सीन था रामजी की वानर सेना और रावण की सेना में युद्ध।
बच्चे वानर सेना में रोल करके गौरवान्वित हो रहे थे।  मुंह पर लाल रंग मलकर लाल चड्डी में पूँछ लगाकर वानर सेना का हिस्सा बने हुए थे।
तभी नज़र उस बालक पर पड़ी जो वानर सेना के मुंह रंगे बच्चों में से किसी को पहचानने का प्रयास था. और कुछ देर कोशिश करने पर कामयाब हो भी गया।  सबसे अगली पंक्ति में बैठा वो बच्चा अचानक उठा और स्टेज पर वानर सेना में शामिल एक बच्चे की ओर इशारा करके खुद से ही बोला -"ओये, एह तां काल्लु ए".
और फिर जोर से चिल्लाया-"ओये काल्लु....झाई तेरी  आवाज़ाँ मारदी पयी ऐ ते तू इथे बांदर बनया होया ऐं "
(मतलब कि तेरी माँ तुझे ढूंढती फिर रही है और तू यहाँ बन्दर बना घूम रहा है …!!"

Saturday, October 3, 2015

"पापा पर इतनी भारी लकड़ियाँ मत रखो…!!"

"पापा पर इतनी भारी लकड़ियाँ मत रखो…!!"
पिछले तीन दिन से 12 साल के उस बच्चे की आवाज़ मेरे कानों और दिमाग में गूँज रही है, जिसकी फोटो मैंने सिर्फ अखबार में देखी है. जैसे ही यह आवाज सुनती है, दिल में एक हूक  सी उठ रही है.  गला भर आ रहा है, आँखों के कोने गीले हो रहे हैं. आँखों के सामने एक ऐसा सीन बन रहा है जैसे मैं शमशान घाट में उस रोते हुए मासूम बच्चे के सामने खड़ा हूँ …और वो बच्चा उसके पापा के पार्थिव शरीर पर चिता की भारी लड़कियां का बोझ सहन नहीं कर पा रहा. 
कैसे उस बच्चे ने कुछ देर बाद पापा के शरीर को अग्नि दी होगी!! "पापा जल जाएंगे। … " जैसा डर उसके मासूम दिल में कैसे उतरा होगा. 
और वो अपने 'पापा' को वहीँ जलता हुआ छोड़कर कैसे घर गया होगा। …रोते रोते सो तो गया होगा लेकिन सुबह उठते ही याद आ गया होगा कि  'पापा' तो वहीँ हैं जलती  लकड़ियों के बीच। …!! पापा जरूर बच गए होंगे, जब सब लोग उधर नहीं देख रहे थे तो पापा चुपचाप भारी लकड़ी को हटाकर निकल गए होंगे क्योंकि उन लकड़ियों के नीचे जरूर एक सुरंग होगी जैसी उसके स्कूल के पीछे वाले 'ग्राउंड' में बनी है..... और आकर पीछे वाले कमरे में छिप गए होंगे 'सरप्राइज' देने के लिये…
मुझे पूरा यकीन है घर में पसरे मातम और रह रहकर आ रही सिसकियों और बेसुध पड़ी माँ से नज़र बचाकर वो बच्चा उस पीछे वाले कमरे में गया तो जरूर ही होगा …इस विश्वास के साथ कि 'पापा' हर बार की तरह इस बार भी 'सरप्राइज' देंगे और बदले में वो जोर से चिल्लाकर माँ को 'सरप्राइज' देगा कि "ये रहे पापा तो। …!!"
मेरा दिल  इस काल्पनिक सीन को तैयार करके और 'एक्शन , रिप्ले ' करके कितनी बार रोया है पिछले तीन दिन से.…कि जब पिछले कमरे में पहुंचकर जब उस बच्चे ने लाइट जलाई होगी तो उसका विश्वास कैसे ज़र्रा ज़र्रा हुआ होगा। कितनी जोर से रोया होगा वो बच्चा ये सोचकर कि अब पापा सचमुच ही नहीं आएंगे क्योंकि वो भारी लड़कियों के नीचे से तो निकल गए होंगे लेकिन उनको घर का रास्ता नहीं याद आ होगा. पापा पहले वहां कभी गए भी तो नहीं थे…। 'मम्मी से पूछता हूँ पापा का मोबाइल कहाँ है ……!!
इस बच्चे के पापा का मोबाइल नंबर आपके पास तो नहीं होगा, लेकिन चंडीगढ़ के अफसरों के नंबर तो गूगल पर ढूंढ ही सकते हो. तो कहना एडवाइजर से, होम सेक्रेटरी से, एसएसपी से और यूनेस्को की उस टीम से भी जो ली कार्बूजिये के काम को देखने आई हुयी है… कि इस बच्चे के 'पापा' इसी 'कार्बूजिये सेंटर' में काम करता था जिसपर चोरी के किसी मामले को कबूल करने के लिए पुलिस दबाव बना रही थी.  दबाव न सहते हुए उसने आत्महत्या कर ली थी तीन दिन पहले. उस दिन घर से निकलने से वह इस बच्चे को कहकर गया था कि 'माँ को परेशान मत करना।'
बच्चा माँ को परेशान नहीं कर रहा है, इसलिए वो माँ से पूछ भी नहीं रहा है कि पापा का मोबाइल कहाँ है. 
एडवायजर साहिब, आत्महत्या के जांच के आदेशों में यह भी जोड़ना कि बच्चे के पापा को जिन भारी लकड़ियों के नीचे रखा गया था, उनके नीचे आपने सुरंग क्यों नहीं बनवायी थी.  डोरेमोन को बोल देते ....!! 

Tuesday, September 29, 2015

कहाँ गए वो लोग...


'यार माँ, ये सब क्या है? कुछ नहीं होता ये सब..श्राद्ध..!! कोई नहीं मानता. आप ही पीछे पड़े रहते हो...ये नी करना, वो नी करना. अब शॉपिंग के लिए 15 दिन रुके रहो. सब वहम है.'
ये शायद हर घर का ही किस्सा हो. मेरे घर में तो कई साल रहा...तब तक रहा जब तक खुद ये बात सुनने की हालत में नहीं आ गया. अब समझ आ रहा है कि माँ हमें अपने रिवाजों से जोड़े रखने के अलावा और कुछ भी नहीं कर रही थी. उसके पास कोई लॉजिक नहीं था, कोई जस्टिफिकेशन नहीं था. जब भी हम इन बातों का लॉजिक पूछते, उनके पास एक ही जवाब होता,'इस घर में आने के बाद तुम्हारी दादी ने जो सिखाया, वही करवा रही हूँ. मैंने भी उनसे भी कुछ नहीं पूछा था.'
और सच भी यही है. माँ वही तो करवाती रही जो दादी ने उनको कहा...मेरे पिता के परिवार के रीति-रिवाजों को आगे बढ़ाने का काम...बिना 'लॉजिक' पूछे.
आज दादा जी के श्राद्ध के दिन महसूस हुआ कि ये सब वहम नहीं है, माइथोलॉजी भी नहीं है.
तथाकथित तर्कशीलों के हिसाब से तर्कविहीन और दकियानूसी हो सकता है...लेकिन आज मेरे लिए श्राद्ध का मतलब बदलकर पितृपक्ष हो गया है. उन लोगों के प्रति श्रंद्धांजलि देने का समय जो हमारे थे..इस दुनिया में हमारे आने से पहले वे ही परिवार थे और हमें इस दुनिया में लाने वाले भी.
पितरों को याद करने के लिए साल भर में दो सप्ताह का समय तो निकाला ही जा सकता है. दो सप्ताह के लिए तो 'फिफ्टी परसेंट सेल' और 'वन प्लस वन' की सोच छोड़ी जा सकती है...
आज लगा मुझे पापा की जगह खड़े होकर "कुछ नहीं होता' या 'सब पंडितों के बनाये हुए ड्रामें' या 'आजकल कौन मानता है जैसे तर्कों का जवाब 'बेटा, जैसी आपकी मर्ज़ी'...से हटकर देना चाहिए. कि श्राद्ध 'माइथोलॉजी' नहीं हैं. ये हमारे धरम का हिस्सा भी नहीं हैं. बस अपने पूर्वजों को याद करने भर का समय है. सालभर पिज़्ज़ा पार्टी करने, शॉपिंग करने, आउटिंग करने और मोबाईल के नए मॉडल्स देखते रहने के बीच तो हम अपने जीते-जागते माँ-बाप को भी याद नहीं करते तो गुजरे हुए कल और गुजरे हुओं को कहाँ याद करेंगे...उनके ज़माने में पिज़्ज़ा और बर्गर नहीं थे...उन्हें पसंद भी नहीं होते..जैसे पापा को आज भी नहीं है....तो काम से काम जो उन्हें पसंद था...एक अच्छा सा खाना, दाल, सब्ज़ी, चपाती और खीर वाला...वो ही दे दें किसी को.. उनके नाम से....लोग वहम करते हैं टोने-टोटके का तो मंदिर वाले पंडित जी तो नहीं करते, उनको ही दे दें. रिवाज़ तो भांजे को खाना खिलाने का भी रहा है...पर अब भाइयों की बहनें ही नहीं है...भांजे कहाँ से होंगे. इकलौती संतानें हैं.
खैर, मतलब बच्चों को अपने पूर्वजों से जोड़े रखना है. हमें भी पूर्वज बनना है. बच्चों को 'फैमिली ट्री' के बारे में बताने के लिए ही पितृ-पक्ष को मानें ताकि बच्चों को पता रहे 'ग्रैंड 'पा' के भी 'डैड' थे और उनके भी 'ग्रैंड 'पा'. और उनके नाम भी थे और समाज का हिस्सा भी थे वो..
बाय द वे, आपको आपके पापा के 'ग्रैंड 'पा' के 'डैड' का नाम पता है? और आपके बेटे को आपके 'ग्रैंड 'पा' का?
सेल्फ़ी के मारी नयी पीढ़ी को 'सेल्फ' से आगे भी सिखाएं और टेक्नोलॉजी के साथ साथ परिवार के साथ भी जोड़े रखें. पितृपक्ष ब्राह्मणवादी नहीं...क्योंकि कोई भी पिता ब्राह्मणवादी नहीं होता, परिवारवादी होता है.