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Tuesday, September 29, 2015

कहाँ गए वो लोग...


'यार माँ, ये सब क्या है? कुछ नहीं होता ये सब..श्राद्ध..!! कोई नहीं मानता. आप ही पीछे पड़े रहते हो...ये नी करना, वो नी करना. अब शॉपिंग के लिए 15 दिन रुके रहो. सब वहम है.'
ये शायद हर घर का ही किस्सा हो. मेरे घर में तो कई साल रहा...तब तक रहा जब तक खुद ये बात सुनने की हालत में नहीं आ गया. अब समझ आ रहा है कि माँ हमें अपने रिवाजों से जोड़े रखने के अलावा और कुछ भी नहीं कर रही थी. उसके पास कोई लॉजिक नहीं था, कोई जस्टिफिकेशन नहीं था. जब भी हम इन बातों का लॉजिक पूछते, उनके पास एक ही जवाब होता,'इस घर में आने के बाद तुम्हारी दादी ने जो सिखाया, वही करवा रही हूँ. मैंने भी उनसे भी कुछ नहीं पूछा था.'
और सच भी यही है. माँ वही तो करवाती रही जो दादी ने उनको कहा...मेरे पिता के परिवार के रीति-रिवाजों को आगे बढ़ाने का काम...बिना 'लॉजिक' पूछे.
आज दादा जी के श्राद्ध के दिन महसूस हुआ कि ये सब वहम नहीं है, माइथोलॉजी भी नहीं है.
तथाकथित तर्कशीलों के हिसाब से तर्कविहीन और दकियानूसी हो सकता है...लेकिन आज मेरे लिए श्राद्ध का मतलब बदलकर पितृपक्ष हो गया है. उन लोगों के प्रति श्रंद्धांजलि देने का समय जो हमारे थे..इस दुनिया में हमारे आने से पहले वे ही परिवार थे और हमें इस दुनिया में लाने वाले भी.
पितरों को याद करने के लिए साल भर में दो सप्ताह का समय तो निकाला ही जा सकता है. दो सप्ताह के लिए तो 'फिफ्टी परसेंट सेल' और 'वन प्लस वन' की सोच छोड़ी जा सकती है...
आज लगा मुझे पापा की जगह खड़े होकर "कुछ नहीं होता' या 'सब पंडितों के बनाये हुए ड्रामें' या 'आजकल कौन मानता है जैसे तर्कों का जवाब 'बेटा, जैसी आपकी मर्ज़ी'...से हटकर देना चाहिए. कि श्राद्ध 'माइथोलॉजी' नहीं हैं. ये हमारे धरम का हिस्सा भी नहीं हैं. बस अपने पूर्वजों को याद करने भर का समय है. सालभर पिज़्ज़ा पार्टी करने, शॉपिंग करने, आउटिंग करने और मोबाईल के नए मॉडल्स देखते रहने के बीच तो हम अपने जीते-जागते माँ-बाप को भी याद नहीं करते तो गुजरे हुए कल और गुजरे हुओं को कहाँ याद करेंगे...उनके ज़माने में पिज़्ज़ा और बर्गर नहीं थे...उन्हें पसंद भी नहीं होते..जैसे पापा को आज भी नहीं है....तो काम से काम जो उन्हें पसंद था...एक अच्छा सा खाना, दाल, सब्ज़ी, चपाती और खीर वाला...वो ही दे दें किसी को.. उनके नाम से....लोग वहम करते हैं टोने-टोटके का तो मंदिर वाले पंडित जी तो नहीं करते, उनको ही दे दें. रिवाज़ तो भांजे को खाना खिलाने का भी रहा है...पर अब भाइयों की बहनें ही नहीं है...भांजे कहाँ से होंगे. इकलौती संतानें हैं.
खैर, मतलब बच्चों को अपने पूर्वजों से जोड़े रखना है. हमें भी पूर्वज बनना है. बच्चों को 'फैमिली ट्री' के बारे में बताने के लिए ही पितृ-पक्ष को मानें ताकि बच्चों को पता रहे 'ग्रैंड 'पा' के भी 'डैड' थे और उनके भी 'ग्रैंड 'पा'. और उनके नाम भी थे और समाज का हिस्सा भी थे वो..
बाय द वे, आपको आपके पापा के 'ग्रैंड 'पा' के 'डैड' का नाम पता है? और आपके बेटे को आपके 'ग्रैंड 'पा' का?
सेल्फ़ी के मारी नयी पीढ़ी को 'सेल्फ' से आगे भी सिखाएं और टेक्नोलॉजी के साथ साथ परिवार के साथ भी जोड़े रखें. पितृपक्ष ब्राह्मणवादी नहीं...क्योंकि कोई भी पिता ब्राह्मणवादी नहीं होता, परिवारवादी होता है.