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Wednesday, May 18, 2016

जात ना पूछो साधू की....!!

खाना खाया है?
“नहीं, यहाँ खाना में लहसुन-प्याज़ डालते हैं. हम लहसुन-प्याज़ नहीं खाते”
क्यों नहीं खाते?
“मैथिलि हैं. जानते हैं. पंडित, भरद्वाज गोत्र...मुग़लसराय के” कहकर गले में पहना सूत का जनेऊनुमा धागा दिखाती है. मुझे बजरंगी भाईजान फिल्म का डायलोग याद आता है...”गोरा रंग है, जरुर बामन होगी”.
पैसे हैं..कितने हैं...?
वो लाल रंग का एक छोटा सा झोला खोलती है. झोले में एक ‘पन्नी’ है, छोटा सा पॉलीथीन. और कुछ नहीं. वह बिना किसी झिझक के पन्नी बाहर निकालती है. पन्नी में से कुछ चिल्लर झांकती है..एक और दो रूपये के सिक्के...बामुश्किल आठ-दस रुपये होंगे...!!
बस.
बातचीत की तो उसे लगा कि बाबू ने सहानुभूति दिखाई है. मेरी मनोदशा समझ कर हाथ फैला देती है. मैंने और बात करना चाहता हूँ. चमचमाते मल्टी नेशनल ब्रांड्स के शोरूम के ठीक सामने लगे बेंच पर मेरे बराबर में बैठने कि वह हिम्मत नहीं कर पाती. नीचे गर्म ज़मीन पर बैठने लगती है तो मेरी नज़र उसके पैरों की ओर पड़ती है. पुरानी घिस चुकी रबड़ की कैंची चप्पलें और बीमारी से सूज चुका दायाँ पैर.
मैं उसे अपने बराबर में बैठने को कहता हूँ. अजनबी शहर में कोई इतना पूछ ले कि खाना खाया है माता जी..? तो बमुश्किल रोके हुए बेबसी और लाचारी के आंसू बगावत कर देते है. घोर गरीबी के बावजूद सत्तर साल की उम्र में भी उषा देवी के चेहरे पर सत्व झलकता है, ये सिर्फ सात्विकता से आ सकता है. गरीबी चेहरे पर झुर्रियां डाल सकती है, मन और आत्मा पर नहीं.
“सुबह से तुमने ही बाबू अच्छे से बात की है. नहीं तो दूर से पंजे (हाथ) के इशारे से ही भगा देते हैं.”
अच्छा अब बताओ खाना क्यों नहीं खाया.
“पैसा नहीं है. कल रात में खाया था दिल्ली स्टेशन पर एक पूड़ी और भाजी. एक जन बाँट रहा था. बिना टिकट ही गाड़ी (ट्रेन) में बैठकर आ गयी.”
मतलब जब घर से चली थी तो भी पैसा नहीं था?
“पैसा कहाँ से आता. पति का एक हाथ और पैर कमजोर (अधरंग) हो गया है. लोगों के घर में काम करती हूँ तो दो जन का खाना दे देते हैं. ये धोती (साड़ी) दीवाली पर दिया था.”
और बच्चे? वो मदद नहीं करते?
“बच्चे नहीं रहे. चार थे ख़तम हो गए. बड़ा 12 साल बीमार रहा फिर नहीं रहा. उस से छोटा था. एक दिन बुखार आया और रात को ही ख़त्म. एक बेटी को मुंह से झाग आता था, और सबसे छोटी को माता आई और साथ ही ले गयी.”
कोई ज़मीन नहीं है.  
“थी...दो बीघा. मुग़लसराय स्टेशन से एक कोस दूर ही गाँव है. वही थी. बेटे के इलाज़ के लिए बेच दी. सोचा बच्चा रहेगा तो ज़मीन के बिना भी गुजरा कर लेंगे. अभी दस साल हो गए हैं लोगों के यहाँ बर्तन सफाई करते हैं.”
यहाँ आने को किसने बताया?
“गाँव का एक फौजी है. बोला चंडीगढ़ पीजीआई जाओ, मुफ्त इलाज़ होगा. बोला गुरद्वारे में रहना, खाना मिल जाएगा. कार्ड मुफ्त में बनेगा. पति को बोला इलाज़ करा कर आती हूँ. मुग़लसराय का सरकारी हस्पताल में तो डाक्टर पूछते नहीं. दर्द का दवा देते हैं बस. यहाँ आई हूँ. यहाँ कोई राह भी नहीं बताता. आपने ही बात की बाबू....भगवान भला करे.”
ग़रीबी और बेबसी की जुबां आंसू होते हैं. आंसू भी लगातार कुछ बयानी कर रहे थे. वह बयानी जो उषा देवी के मुंह से नहीं निकल पा रहे थे.
मैं उसके लिए पैटीज और चाय मंगवाता हूँ. वह झिझकती है.
प्याज-लहसुन नहीं है इसमें. मैं कहता हूँ. उसको पकड़ाता हूँ. वह मेरे हाथ से खाना लेने पर फिर झिझकती है. मैं समझ रहा हूँ...इतनी आत्मीयता दिखते ही संस्कार फिर जाग उठते है..!!
मैं भी पंडित हूँ. पंजाब में शर्मा कहते हैं. उधर मिश्रा कहते हैं.
उसकी आँखों में विश्वास चमकता है. एक पैटीज खाती है, दूसरी झोला में रख लेती है.
“रात को खा लुंगी.....बेटा, मुझे वापस जाना है मुग़लसराय. गाड़ी तक पहुंचा दो.”
मैं पांच सौ रूपये देता हूँ. कुछ छुट्टे रूपये अलग से. किनले के पानी की बोतल को ध्यान देखकर झोला में रख लेती है. अब उसके मन में झिझक नहीं है. बेटा दे रहा है. बामन है. मिश्रा....!!