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Wednesday, May 18, 2016

जात ना पूछो साधू की....!!

खाना खाया है?
“नहीं, यहाँ खाना में लहसुन-प्याज़ डालते हैं. हम लहसुन-प्याज़ नहीं खाते”
क्यों नहीं खाते?
“मैथिलि हैं. जानते हैं. पंडित, भरद्वाज गोत्र...मुग़लसराय के” कहकर गले में पहना सूत का जनेऊनुमा धागा दिखाती है. मुझे बजरंगी भाईजान फिल्म का डायलोग याद आता है...”गोरा रंग है, जरुर बामन होगी”.
पैसे हैं..कितने हैं...?
वो लाल रंग का एक छोटा सा झोला खोलती है. झोले में एक ‘पन्नी’ है, छोटा सा पॉलीथीन. और कुछ नहीं. वह बिना किसी झिझक के पन्नी बाहर निकालती है. पन्नी में से कुछ चिल्लर झांकती है..एक और दो रूपये के सिक्के...बामुश्किल आठ-दस रुपये होंगे...!!
बस.
बातचीत की तो उसे लगा कि बाबू ने सहानुभूति दिखाई है. मेरी मनोदशा समझ कर हाथ फैला देती है. मैंने और बात करना चाहता हूँ. चमचमाते मल्टी नेशनल ब्रांड्स के शोरूम के ठीक सामने लगे बेंच पर मेरे बराबर में बैठने कि वह हिम्मत नहीं कर पाती. नीचे गर्म ज़मीन पर बैठने लगती है तो मेरी नज़र उसके पैरों की ओर पड़ती है. पुरानी घिस चुकी रबड़ की कैंची चप्पलें और बीमारी से सूज चुका दायाँ पैर.
मैं उसे अपने बराबर में बैठने को कहता हूँ. अजनबी शहर में कोई इतना पूछ ले कि खाना खाया है माता जी..? तो बमुश्किल रोके हुए बेबसी और लाचारी के आंसू बगावत कर देते है. घोर गरीबी के बावजूद सत्तर साल की उम्र में भी उषा देवी के चेहरे पर सत्व झलकता है, ये सिर्फ सात्विकता से आ सकता है. गरीबी चेहरे पर झुर्रियां डाल सकती है, मन और आत्मा पर नहीं.
“सुबह से तुमने ही बाबू अच्छे से बात की है. नहीं तो दूर से पंजे (हाथ) के इशारे से ही भगा देते हैं.”
अच्छा अब बताओ खाना क्यों नहीं खाया.
“पैसा नहीं है. कल रात में खाया था दिल्ली स्टेशन पर एक पूड़ी और भाजी. एक जन बाँट रहा था. बिना टिकट ही गाड़ी (ट्रेन) में बैठकर आ गयी.”
मतलब जब घर से चली थी तो भी पैसा नहीं था?
“पैसा कहाँ से आता. पति का एक हाथ और पैर कमजोर (अधरंग) हो गया है. लोगों के घर में काम करती हूँ तो दो जन का खाना दे देते हैं. ये धोती (साड़ी) दीवाली पर दिया था.”
और बच्चे? वो मदद नहीं करते?
“बच्चे नहीं रहे. चार थे ख़तम हो गए. बड़ा 12 साल बीमार रहा फिर नहीं रहा. उस से छोटा था. एक दिन बुखार आया और रात को ही ख़त्म. एक बेटी को मुंह से झाग आता था, और सबसे छोटी को माता आई और साथ ही ले गयी.”
कोई ज़मीन नहीं है.  
“थी...दो बीघा. मुग़लसराय स्टेशन से एक कोस दूर ही गाँव है. वही थी. बेटे के इलाज़ के लिए बेच दी. सोचा बच्चा रहेगा तो ज़मीन के बिना भी गुजरा कर लेंगे. अभी दस साल हो गए हैं लोगों के यहाँ बर्तन सफाई करते हैं.”
यहाँ आने को किसने बताया?
“गाँव का एक फौजी है. बोला चंडीगढ़ पीजीआई जाओ, मुफ्त इलाज़ होगा. बोला गुरद्वारे में रहना, खाना मिल जाएगा. कार्ड मुफ्त में बनेगा. पति को बोला इलाज़ करा कर आती हूँ. मुग़लसराय का सरकारी हस्पताल में तो डाक्टर पूछते नहीं. दर्द का दवा देते हैं बस. यहाँ आई हूँ. यहाँ कोई राह भी नहीं बताता. आपने ही बात की बाबू....भगवान भला करे.”
ग़रीबी और बेबसी की जुबां आंसू होते हैं. आंसू भी लगातार कुछ बयानी कर रहे थे. वह बयानी जो उषा देवी के मुंह से नहीं निकल पा रहे थे.
मैं उसके लिए पैटीज और चाय मंगवाता हूँ. वह झिझकती है.
प्याज-लहसुन नहीं है इसमें. मैं कहता हूँ. उसको पकड़ाता हूँ. वह मेरे हाथ से खाना लेने पर फिर झिझकती है. मैं समझ रहा हूँ...इतनी आत्मीयता दिखते ही संस्कार फिर जाग उठते है..!!
मैं भी पंडित हूँ. पंजाब में शर्मा कहते हैं. उधर मिश्रा कहते हैं.
उसकी आँखों में विश्वास चमकता है. एक पैटीज खाती है, दूसरी झोला में रख लेती है.
“रात को खा लुंगी.....बेटा, मुझे वापस जाना है मुग़लसराय. गाड़ी तक पहुंचा दो.”
मैं पांच सौ रूपये देता हूँ. कुछ छुट्टे रूपये अलग से. किनले के पानी की बोतल को ध्यान देखकर झोला में रख लेती है. अब उसके मन में झिझक नहीं है. बेटा दे रहा है. बामन है. मिश्रा....!!



Tuesday, October 13, 2015

"ओये, ए तां काल्लु ऐ.....!!"

'पापा, आपको यकीन है?'
उसके कहने का मतलब आपको विश्वास नहीं होगा की क्या हो रहा है?  मैंने पूछा क्या हो रहा है?
"हमारे घर के पीछे वाले पार्क में 'थ्री' रावण बन भी गए.…!! दशहरे वाले रावण। ....!!
रावण मतलब दशहरा, बस… !! लेकिन अचरज़ बरकरार था. वही सदियों से बच्चों में पाया जाने वाला।
मुझे याद आया कि कैसे हम बच्चों को रावण के पुतले बनते देखने का चाव हुआ करता था।  हमारे घर से थोड़ी दूर सरकारी स्कूल के पास रामलीला हुआ करती थी और वहीँ पास ही रावण के पुतले बना करते थे. हम जल्दी से होमवर्क निपटा कर भागते हुए 'रावण' बनते हुए देखने जाया करते थे।  रात को रामलीला देखने जाने के लिए भी पापा को मना लिया करते थे, वो भी इस शर्त पर कि दस बजे तक वापस आ जाएंगे. असल में उन दिनों पंजाब में आतंकवाद का दौर था और कुछ चरमपंथी इस हिन्दू विचारधारा के खिलाफ थे।  रामलीला के इर्द-गिर्द काफी सिक्योरिटी हुआ करती थी. इस लिए कभी भी रामलीला का कोई भी एपिसोड पूरा देखने का मौका नहीं मिल पाया। घर वापस आ जाया करते थे लेकिन कान उधर ही लगे रहते थे. लाऊडस्पीकर पर आती 'श्री राजा रामचन्द्र की जय मनाओ आज' वाले गीत तक जागने की कोशिश करते रहते ताकि विश्वास हो जाए कि अब रामलीला खत्म हो गयी है और सभी बच्चे घर आ गए हैं.
रामलीला से याद आई एक घटना। हरियाणा के रोहतक की. कॉलेज के दिनों का वाक्या है. एक दोस्त अनिल रोहतक के वैश्य पॉलीटेक्निक में पढता था. उस से बात हुयी की दशहरे की छुटियों में घर आने का क्या प्रोग्राम है? प्लान बना कि हम कर्नाटका एक्सप्रेस से निजामुद्दीन उतरेंगे और वहां से बस लेकर रोहतक आ जायेंगे और फिर एक-दो दिन मस्ती करके चंडीगढ़ चलेंगे.
प्लान के हिसाब से रोहतक जा पहुंचे। शाम को ढाबे पर खाना खाकर घूमते हुए अनिल के ही एक दोस्त से मिलने 'झांगी मोहल्ले' जा पहुंचे. बातें करते करते रात हो गयी. दोस्त हमें ऑटो तक छोड़ने निकला ही था कि मोहल्ले की रामलीला पर नज़र पड़ी,  रुक गये. सीन था रामजी की वानर सेना और रावण की सेना में युद्ध।
बच्चे वानर सेना में रोल करके गौरवान्वित हो रहे थे।  मुंह पर लाल रंग मलकर लाल चड्डी में पूँछ लगाकर वानर सेना का हिस्सा बने हुए थे।
तभी नज़र उस बालक पर पड़ी जो वानर सेना के मुंह रंगे बच्चों में से किसी को पहचानने का प्रयास था. और कुछ देर कोशिश करने पर कामयाब हो भी गया।  सबसे अगली पंक्ति में बैठा वो बच्चा अचानक उठा और स्टेज पर वानर सेना में शामिल एक बच्चे की ओर इशारा करके खुद से ही बोला -"ओये, एह तां काल्लु ए".
और फिर जोर से चिल्लाया-"ओये काल्लु....झाई तेरी  आवाज़ाँ मारदी पयी ऐ ते तू इथे बांदर बनया होया ऐं "
(मतलब कि तेरी माँ तुझे ढूंढती फिर रही है और तू यहाँ बन्दर बना घूम रहा है …!!"

Saturday, October 3, 2015

"पापा पर इतनी भारी लकड़ियाँ मत रखो…!!"

"पापा पर इतनी भारी लकड़ियाँ मत रखो…!!"
पिछले तीन दिन से 12 साल के उस बच्चे की आवाज़ मेरे कानों और दिमाग में गूँज रही है, जिसकी फोटो मैंने सिर्फ अखबार में देखी है. जैसे ही यह आवाज सुनती है, दिल में एक हूक  सी उठ रही है.  गला भर आ रहा है, आँखों के कोने गीले हो रहे हैं. आँखों के सामने एक ऐसा सीन बन रहा है जैसे मैं शमशान घाट में उस रोते हुए मासूम बच्चे के सामने खड़ा हूँ …और वो बच्चा उसके पापा के पार्थिव शरीर पर चिता की भारी लड़कियां का बोझ सहन नहीं कर पा रहा. 
कैसे उस बच्चे ने कुछ देर बाद पापा के शरीर को अग्नि दी होगी!! "पापा जल जाएंगे। … " जैसा डर उसके मासूम दिल में कैसे उतरा होगा. 
और वो अपने 'पापा' को वहीँ जलता हुआ छोड़कर कैसे घर गया होगा। …रोते रोते सो तो गया होगा लेकिन सुबह उठते ही याद आ गया होगा कि  'पापा' तो वहीँ हैं जलती  लकड़ियों के बीच। …!! पापा जरूर बच गए होंगे, जब सब लोग उधर नहीं देख रहे थे तो पापा चुपचाप भारी लकड़ी को हटाकर निकल गए होंगे क्योंकि उन लकड़ियों के नीचे जरूर एक सुरंग होगी जैसी उसके स्कूल के पीछे वाले 'ग्राउंड' में बनी है..... और आकर पीछे वाले कमरे में छिप गए होंगे 'सरप्राइज' देने के लिये…
मुझे पूरा यकीन है घर में पसरे मातम और रह रहकर आ रही सिसकियों और बेसुध पड़ी माँ से नज़र बचाकर वो बच्चा उस पीछे वाले कमरे में गया तो जरूर ही होगा …इस विश्वास के साथ कि 'पापा' हर बार की तरह इस बार भी 'सरप्राइज' देंगे और बदले में वो जोर से चिल्लाकर माँ को 'सरप्राइज' देगा कि "ये रहे पापा तो। …!!"
मेरा दिल  इस काल्पनिक सीन को तैयार करके और 'एक्शन , रिप्ले ' करके कितनी बार रोया है पिछले तीन दिन से.…कि जब पिछले कमरे में पहुंचकर जब उस बच्चे ने लाइट जलाई होगी तो उसका विश्वास कैसे ज़र्रा ज़र्रा हुआ होगा। कितनी जोर से रोया होगा वो बच्चा ये सोचकर कि अब पापा सचमुच ही नहीं आएंगे क्योंकि वो भारी लड़कियों के नीचे से तो निकल गए होंगे लेकिन उनको घर का रास्ता नहीं याद आ होगा. पापा पहले वहां कभी गए भी तो नहीं थे…। 'मम्मी से पूछता हूँ पापा का मोबाइल कहाँ है ……!!
इस बच्चे के पापा का मोबाइल नंबर आपके पास तो नहीं होगा, लेकिन चंडीगढ़ के अफसरों के नंबर तो गूगल पर ढूंढ ही सकते हो. तो कहना एडवाइजर से, होम सेक्रेटरी से, एसएसपी से और यूनेस्को की उस टीम से भी जो ली कार्बूजिये के काम को देखने आई हुयी है… कि इस बच्चे के 'पापा' इसी 'कार्बूजिये सेंटर' में काम करता था जिसपर चोरी के किसी मामले को कबूल करने के लिए पुलिस दबाव बना रही थी.  दबाव न सहते हुए उसने आत्महत्या कर ली थी तीन दिन पहले. उस दिन घर से निकलने से वह इस बच्चे को कहकर गया था कि 'माँ को परेशान मत करना।'
बच्चा माँ को परेशान नहीं कर रहा है, इसलिए वो माँ से पूछ भी नहीं रहा है कि पापा का मोबाइल कहाँ है. 
एडवायजर साहिब, आत्महत्या के जांच के आदेशों में यह भी जोड़ना कि बच्चे के पापा को जिन भारी लकड़ियों के नीचे रखा गया था, उनके नीचे आपने सुरंग क्यों नहीं बनवायी थी.  डोरेमोन को बोल देते ....!! 

Tuesday, September 29, 2015

कहाँ गए वो लोग...


'यार माँ, ये सब क्या है? कुछ नहीं होता ये सब..श्राद्ध..!! कोई नहीं मानता. आप ही पीछे पड़े रहते हो...ये नी करना, वो नी करना. अब शॉपिंग के लिए 15 दिन रुके रहो. सब वहम है.'
ये शायद हर घर का ही किस्सा हो. मेरे घर में तो कई साल रहा...तब तक रहा जब तक खुद ये बात सुनने की हालत में नहीं आ गया. अब समझ आ रहा है कि माँ हमें अपने रिवाजों से जोड़े रखने के अलावा और कुछ भी नहीं कर रही थी. उसके पास कोई लॉजिक नहीं था, कोई जस्टिफिकेशन नहीं था. जब भी हम इन बातों का लॉजिक पूछते, उनके पास एक ही जवाब होता,'इस घर में आने के बाद तुम्हारी दादी ने जो सिखाया, वही करवा रही हूँ. मैंने भी उनसे भी कुछ नहीं पूछा था.'
और सच भी यही है. माँ वही तो करवाती रही जो दादी ने उनको कहा...मेरे पिता के परिवार के रीति-रिवाजों को आगे बढ़ाने का काम...बिना 'लॉजिक' पूछे.
आज दादा जी के श्राद्ध के दिन महसूस हुआ कि ये सब वहम नहीं है, माइथोलॉजी भी नहीं है.
तथाकथित तर्कशीलों के हिसाब से तर्कविहीन और दकियानूसी हो सकता है...लेकिन आज मेरे लिए श्राद्ध का मतलब बदलकर पितृपक्ष हो गया है. उन लोगों के प्रति श्रंद्धांजलि देने का समय जो हमारे थे..इस दुनिया में हमारे आने से पहले वे ही परिवार थे और हमें इस दुनिया में लाने वाले भी.
पितरों को याद करने के लिए साल भर में दो सप्ताह का समय तो निकाला ही जा सकता है. दो सप्ताह के लिए तो 'फिफ्टी परसेंट सेल' और 'वन प्लस वन' की सोच छोड़ी जा सकती है...
आज लगा मुझे पापा की जगह खड़े होकर "कुछ नहीं होता' या 'सब पंडितों के बनाये हुए ड्रामें' या 'आजकल कौन मानता है जैसे तर्कों का जवाब 'बेटा, जैसी आपकी मर्ज़ी'...से हटकर देना चाहिए. कि श्राद्ध 'माइथोलॉजी' नहीं हैं. ये हमारे धरम का हिस्सा भी नहीं हैं. बस अपने पूर्वजों को याद करने भर का समय है. सालभर पिज़्ज़ा पार्टी करने, शॉपिंग करने, आउटिंग करने और मोबाईल के नए मॉडल्स देखते रहने के बीच तो हम अपने जीते-जागते माँ-बाप को भी याद नहीं करते तो गुजरे हुए कल और गुजरे हुओं को कहाँ याद करेंगे...उनके ज़माने में पिज़्ज़ा और बर्गर नहीं थे...उन्हें पसंद भी नहीं होते..जैसे पापा को आज भी नहीं है....तो काम से काम जो उन्हें पसंद था...एक अच्छा सा खाना, दाल, सब्ज़ी, चपाती और खीर वाला...वो ही दे दें किसी को.. उनके नाम से....लोग वहम करते हैं टोने-टोटके का तो मंदिर वाले पंडित जी तो नहीं करते, उनको ही दे दें. रिवाज़ तो भांजे को खाना खिलाने का भी रहा है...पर अब भाइयों की बहनें ही नहीं है...भांजे कहाँ से होंगे. इकलौती संतानें हैं.
खैर, मतलब बच्चों को अपने पूर्वजों से जोड़े रखना है. हमें भी पूर्वज बनना है. बच्चों को 'फैमिली ट्री' के बारे में बताने के लिए ही पितृ-पक्ष को मानें ताकि बच्चों को पता रहे 'ग्रैंड 'पा' के भी 'डैड' थे और उनके भी 'ग्रैंड 'पा'. और उनके नाम भी थे और समाज का हिस्सा भी थे वो..
बाय द वे, आपको आपके पापा के 'ग्रैंड 'पा' के 'डैड' का नाम पता है? और आपके बेटे को आपके 'ग्रैंड 'पा' का?
सेल्फ़ी के मारी नयी पीढ़ी को 'सेल्फ' से आगे भी सिखाएं और टेक्नोलॉजी के साथ साथ परिवार के साथ भी जोड़े रखें. पितृपक्ष ब्राह्मणवादी नहीं...क्योंकि कोई भी पिता ब्राह्मणवादी नहीं होता, परिवारवादी होता है. 

Sunday, February 26, 2012

अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो...!!!

करीब एक घंटे तक सभी कोशिशें करने के बाद जब हम उस नवजात सईनोटिक बच्ची को संभालने में कामयाब नहीं हुए तो उसे बुलंदशहर रेफेर करने का फैसला किया. रात को एक बजे उस बच्ची के परिवार के लोगों को यह बताने भर की देर ही थी रोना-धोना मच गया कहीं से गाडी का इंतज़ाम किया गया. ऑक्सीजन लगा कर उसे रेफेर करके हम गायनी वार्ड के आगे से गुजर रहे थे कि किसी के जोर जोर से बोलने की आवाज सुनकर रुके. बच्ची का दादा ऊंची आवाज में डाक्टरों पर लापरवाही बरतने का इलज़ाम लगने में जुटा था. बकौल उसके डाक्टरों की लापरवाही से बच्चे के पेट में पानी चला गया. शायद उसने सुन लिया था कि कोई सक्शन मशीन होती है जिस से बच्चे के पेट से पानी निकाला गया था.
बूढा मेडिकल की इस थ्योरी को समझने को कतई तैयार नहीं था कि दाई के चक्कर में पड़कर आठ घंटे देरी से अस्पताल पहुंचने का येही खामियाजा होता है जिसे हम 'ओब्सट्रेकटिव डिलेवरी' कहते हैं और बच्चे की जान पे बन आती है. लेकिन बूढ़े को यह समझाना बेकार था. डीसी दत्ता की 'प्रिंसिपल्स ऑफ गायनी एंड ओब्स' की मजबूरियां हमारे लिए थी, उसके लिए नहीं. वो शोर मचाता रहा और इस गलती के लिए अस्पताल की ईंट से ईंट बजा देने की धमकियों पर उतर आया था.
हम चले आये. बाद में स्टाफ में से किसी ने सुना कि वो उसके गाँव के कुछ आवारा किस्म के लड़कों को अगली सुबह अस्पताल आकर डाक्टरों को सबक सीखाने के लिए उकसा रहा था. इधर रात को बुलंदशहर में बच्चों के नामी अस्पताल तक पहुँचने के बाद बच्ची को बचाया नहीं जा सका. कोंजेनईटल मिट्रल वाल्व स्टेनोसिस शायद इसका कारण रहा हो. खैर, अगली सुबह ओपीडी के बाहर शोर सुनकर जब मैं वहां पहुंचा तो पाया कि बूढा और उसके साथ आये कुछ लोग अस्पताल के मैनेजर जीतू भाई से बहस कर रहे थे. जब तक मैं वहां पहुंचा, जीतू भाई जोर जोर से यह कहने की कोशिश कर रहे थे कि डाक्टरों के लिए हर बच्चा कीमती है. उन्होंने कोशिश की लेकिन 'छोरी' (लड़की) नहीं बची तो क्या करें. बूढा अचानक बोला-क्या कहा छोरी? वो छोरा ना था? जीतू ने बताया कि लड़की पैदा हुयी थी. इतना सुनना था कि बूढ़े ने अचानक माथे में हाथ मारा और बोला-अरे, छोरी थी तो बताया काहे न? मरन दे न फिर तो, काहे का झगडा. छोरी के मरने का कौन सा दुःख.छोरी तो भागवान की मरे है.

Wednesday, February 16, 2011

"नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आपका स्वागत है"....!!

चंडीगढ़ के लिए शताब्दी पकड़ने के लिए प्लेटफॉर्म पर लोगों की भीड़ से टकराते-बचते मै भागा जा रहा था कि एक औरत की चीख सुनकर ठिठका. देखा प्लेट फॉर्म पर भीड़ का एक हुजूम गोल दायरा बनाए खड़ा था और उसी में से कहीं औरत की चीख आ रही थी. मेरे चलने की तेज़ रफ़्तार से कदम मिलाने की कोशिश के बाद भी कुछ कदम पीछे रह गयी डॉक्टर संजना को मैंने उसी दायरे में घुसते देखा तो मुझे भी लौटना पड़ा.
लोगों के हुजूम में घुस कर देखा तो एक औरत प्लेटफोर्म के फर्श पर लेटी थी और दो उसके बगल में बैठी मदद के लिए चिल्ला रहीं थी. देखते ही केस समझ आ गया. फुल टर्म प्रेगनेंसी और किसी फिलमी सीन की तरह प्लेटफॉर्म पर डिलीवरी की तैयारी. जितनी देर मै केस हेंडल करने का प्लान बनाता, डॉक्टर संजना फॉर्म में आ चुकी थी. पराईमी, ब्रीच,कॉर्ड स्नेप और चार किलो और सात सौ ग्राम के बेबी को नॉर्मल डिलीवरी, और वह भी बिना एपिजियोटॉमी हेंडल करने का रिस्क लेने को उतारू रहने वाली डॉक्टर संजना ने दो और औरतों का घेरा बना कर पीवी कर ली. आम तौर पर जूते के तले पर भी कीचड़ लग जाने पर हाय-तौबा मचाने वाली डॉक्टर संजना ने बिना सर्जिकल ग्लोव्स के पीवी कर ली और पाया कि क्राउनिंग हो गयी थी. अब '3 इडीएट्स ' का क्लाईमक्स रिप्ले करने के अलावा कोई चारा बचा भी नहीं था.
लोगों से भरे ऐसे प्लेटफोर्म पर जहाँ मै ट्रेन आने के दस मिनट पहले ही पहुंचना पसंद करता हूँ ताकि बहरा कर देने वाले शोर शराबे की बीच रंग-बिरंगी हरकतें करने वाले लोगों से बच सकूँ. मै वहां ऐसी स्थिति में अवाक् खड़ा था. समझ नहीं आ रहा था कि कॉर्ड कटिंग सीज़र,कॉर्ड क्लेम्प और कॉटन के बिना आखिर ये करेगी क्या? आस पास खड़े लोग हैरानी के मारे चुप हो गए. डॉक्टर संजना ने अचानक बेबी आउट किया और पास खड़े लोगों से कैंची मांगी. किसी ने शेविंग किट में से छोटी कैंची निकाल कर दी. डॉक्टर ने एक कपडा फाड़कर कॉर्ड बाँधी और काटी. डॉक्टर संजना ने मेरी ओर देखा. हर बार रिस्की केस हेंडल करने के बाद उसके चेहरे पर आने वाली जिद्दी मुस्कान.बीस सेकंड बाद बेबी के रोने की आवाज़.
.....और तभी रेलवे प्लेटफोर्म के लाउडस्पीकर पर एक चहचहाती हुयी 'फीमेल वायस '-"नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आपका स्वागत है"....!!

Saturday, January 29, 2011

सर्दी में भी गर्मी का अहसास, चाचू मुझे पसीने क्यों आ रहे हैं..!!

कड़ाके की सर्दी की सुबह ओपीडी खुलने के पहले ही फोन आ गया कि रात को हुई डिलीवरी के चार्जेज कम करने को लेकर पेशंट के साथ आये लोग शोर मचा रहे हैं. पूछने पर पता चला कि लोग हैं तो पास के गाँव रबुपुरा के अच्छे खाते-पीते परिवार से लेकिन पहला बच्चा था, 'लड़की' पैदा होने के कारण परिवार का उत्साह ख़त्म हो गया है और इसलिए हॉस्पिटल चार्जेस कम करने की मांग कर रहे हैं. हैरानी हुयी सुनकर. इसलिए भी कि अस्पताल के चार्जेस तो पहले से ही चेरिटेबल हैं और इसलिए भी कि लड़की के पैदा होते ही इन्हें बोझ लगने लगी तो आगे इसके साथ कैसा सलूक करेंगे? और पैसे कम करने की मांग भी ऐसे लोग कर रहे हैं जिनके घर में कोई कमी नहीं है और परिवार में पहला बच्चा आया है. लड़की के लक्ष्मी होने, लड़की से ही परिवार चलने और उसकी दादी को 'तुम भी तो लड़की पैदा हुई थी' जैसे जुमले सुनाने का जब कोई असर नहीं हुआ तो मैंने 'बैड चार्जेस' छोड़ देने को कहा.
और आज फिर वैसा ही केस. गरीब आदमी हैं पास के गाँव वैना के. मजदूरी करते हैं. फुल टर्म प्रेगनेंसी, आज तक कोई चेकअप नहीं, कोई अल्ट्रा साउंड नहीं, कोई दवा नहीं. क्यों? 'साहेब, गरीब लोग हैं, खाने को भी पैसा नहीं है तो दवा कहाँ से करते. औरत की हालत ऐसी मरियल कि देखकर लगा ही नहीं कि फुल टर्म प्रेगनेंसी भी है. अनोरेक्सिक, अनिमिक.
हैरानी तो तब हुई जब लेबर रूम में पहला बच्चा एक लड़की होने के बाद जब डॉक्टर संजना ने प्लेसेंटा आउट करने के लिए सर्विक्स टटोला तो एक और बच्चे की 'क्राउनिंग' हो गयी. एक लड़का और एक लड़की, दोनों कम वज़न के. अस्पताल के मेनेजर हैं जीतू भाई, उनके पिता जी ने भी सिफारिश कर दी कि इतने गरीब हैं कि सुबह खाना खा लें तो पता नहीं कि रात को मिले कि नहीं. 'पुअर फ्री' कर दिया. डिस्चार्ज कार्ड देखा तो इस गरीब परिवार की हिम्मत देखकर पसीना आ गया. पहले से तीन लड़कियां, दो लड़के हैं और एक लड़की और लड़का अब आ गया...लेकिन इतने बच्चों और खासकर चार 'लड़कियों' को पालने की फ़िक्र का चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं. मुझे कल वाले केस के चार्जेस कम करने का बहुत मलाल हो रहा है.