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Monday, February 23, 2009

लंगोट वालों के लिए (पिंक) चड्डी.....!!! हाय राम...!!!

दिन भर वैलेंटाइन दिवस मनाने और उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए हाथ धोकर पीछे पड़े सेनापतिओं, दलियों और परिषादियों के कारनामों की खबरें पढ़ता रहा. मुझे दो बातें बिल्कुल भी समझ में नहीं आ रही, पहली यह कि इन्हें धरम कि ठेकेदारी करने का लाईसेन्स कौन देता है? और दूसरी बात यह कि अपनी औरतों और दूसरों की बहनों-बेटियों के साथ बदतमीजी करना क्या ये लोग माँ के गर्भ से सीखकर आते हैं या यहाँ हिन्दुस्तान में भी तालिबानिओं ने अपनी फ्रैन्चाईजी दे दी हैं ट्रेनिंग कैंप चलाने की. या राज चलाने वालों की नीतियां ही ऐसी हैं...? मंगलोर में जो हुआ उसे तो सरकारी नीति ही कहा जा सकता है क्योंकि राज चलाने वालों ने उसके ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोला. पब में बैठी लड़किओं के साथ जो हुआ वह भी तो संस्कृति नहीं है. देश के एक एक पैसे पर, नोट पर महात्मा गाँधी की फोटो लगी है...और उनके अहिंसा के नारे को हम याद तक नहीं रख रहे. वैसे मतलब तो यह भी नहीं है की पब भरो आन्दोलनों से ही नारी आजादी आने वाली है. रेणुका चौधरी के बयान पर भी मैं हैरान हुआ, असल में वे मोहतरमा भी इस मुगालते में हैं कि पब में जाने, अधनंगे बदन रखने से ही औरतें आजाद होंगी. आज़ादी का मतलब सोच की आज़ादी से है कि वे कितनी आज़ादी से सोच सकती हैं. और सोच पब से नहीं बल्कि बुद्धिजीविता से आती है. पब में बैठने से सिर्फ़ बिंदास दिखा जा सकता है, बना नहीं जा सकता. बिंदास होने के लिए उस स्तर तक आना पड़ेगा जहाँ से एक तर्कसंगत सोच शुरू होती है. हमारे मुथालिक को भी मारपीट कर संस्कृति सिखाने की कोशिश छोड़कर पब में बैठने वाली लड़कियों को अमृता प्रीतम जैसी बिंदास बनने के बारे में बताना चाहिए जिसने आज से कई साल पहले बिना शादी किए इमरोज़ के साथ रहने का मादा दुनिया को दिखाया. यह मादा तभी आएगा जब सोच बदलेगी. मेरे एक दोस्त राजीव गोदारा की बात याद आ गयी जो सोच बदलने का जबरदस्त उदाहरण है. राजीव गोदारा पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में वकील हैं. प्रेम विवाह करके माँ-बाप और समाज से सुरक्षा लेने के लिए हाई कोर्ट में आने वाली उन लड़कियों की बात की राजीव ने. राजीव का तर्क है की लड़कियां विवाह के लिए समाज के पित्रात्मक नियमों को ठुकरा रही हैं यह अच्छी बात है. पर उनकी सोच स्वतंत्र नहीं हो रही. क्योंकि वे समाज के नियम तोड़कर शादी कर रही हैं, लेकिन दुल्हन के लिए हाथ में कुहनी तक चूडा पहनने वाली शर्त से बाहर नहीं निकल पा रही हैं. अगर वे विवाह को संस्था के तौर पर ठुकरा रही हैं तो वे जींस पहनकर शादी क्यों नहीं करती....!!! ये ही सोच का फर्क है..जो आना चाहिए. बात मैं उन की कर रहा हूँ जिनके राज में यह सब हो रहा है. पता नहीं राज को धरम बताने वाले इंसानियत का धरम कब सीखेंगे. सब को थोड़ा टाईट करने की जरूरत है. टाईट किए बिना कुछ होने वाला नहीं है. चंडीगढ़ के नजदीक लगते हरियाणा के शहर पंचकुला में कानून और व्यवस्था की हालत ख़राब हो गयी. तीन साल में 17 डकैतियां और 18 कत्ल. डीजीपी साहब से पूछा की जनाब, एसपी ने तो कुछ नहीं किया, आपने क्या किया? डीजीपी साहब बोले-मैंने एसपी को थोड़ा टाईट कर दिया है. अगर टाईट करने से सब कुछ ठीक हो सकता है तो राज चलाने वाले इन राम सेना वालों, बजरंग दल वालों और विश्व हिन्दू परिषद् वालों को क्यों नहीं टाइट कर रही? जनता को ही टाइट किए जा रहे हैं. चंडीगढ़ में पिछले हफ्ते इंडियन नेशनल लोकदल नाम की पार्टी ने एक राजनैतिक रैली की. रैली का आयोजन हरियाणा में क़ानून और व्यवस्था ख़राब होने के कारण कांग्रेस सरकार को टाईट करना था. लेकिन जिस तरह से सारी कानून व्यवस्था को धत्ता बता कर रैली करने वालों ने चंडीगढ़ शहर के बाशिंदों को टाईट किया, वो ही जानते हैं. एक बुजुर्ग ने तो शुक्र मनाया की रैली करने वाले सत्ता में नहीं हैं, नहीं तो कानून व्यवस्था का क्या हाल करते ये सबके सामने ही है. बात जब टाईट करने की ही चल पड़ी है तो यह भी बता देता हूँ कि मुथालिक जैसे लोगों को लड़कियों के टाईट कपड़े पहनने पर पहले ही ऐतराज़ है और ऊपर से इन पिंक चड्डी वालियों ने समस्या गंभीर कर दी. पच्चीस हज़ार चड्डी भेज तो दी मुथालिक को पर उसे सारी टाईट हैं. कोई भी उसके साइज़ नहीं है. मुथालिक ने समझदारी दिखाई कि साडियां भेज दी. साइज़ का कोई चक्कर नहीं. कोई भी पहन ले. शुक्र है निशा सरूर ने 'पब जाने वाली, लूज़ और फॉरवर्ड लड़कियों' से मुथालिक के लिए बिकनी वाली चड्डी भेजने का आह्वान नहीं कर दिया. राम राम...!!! क्या ज़माना आ गया है. एक ज़माना था लडकियां घरों में भी अपनी चड्डी बड़े कपडों के नीचे छुपा कर सुखाया करती थी किसी कोने में और अब पार्सल कर रही हैं...?? मुझे याद आया कि किसी ने मुझे एक बार समझाया था कि समझदार वही होता है जो दूसरों के फेंके पत्थरों से अपने लिए मकान बना ले.. तो समझदारी इसी में हैं कि मुथालिक इन चड्डी की दूकान खोल लें. गांधीगिरी का इस से अच्छा तरीका नहीं हो सकता. वैसे एक बात मुझे समझ नहीं आ रही कि औरत जात से नफरत करने वालों के इन सभी गैंग वालों ने अपने नाम भगवान पर क्यों रखे हैं? सतयुग में तो किसी भगवन ने ऐसा नहीं किया. राम सेना वाले जिस संस्कृति की बात कर रहे हैं वे अगर रामायण में छपी माता सीता की फोटो देख लें तो उन्हें अकल आ जाए. उस ज़माने में औरतों के पहनावे के बारे में लिखा गया है कि वे साड़ी और कंचुकी पहनती थी. लड़कियों के जींस और टॉप पहनने पर ऐतराज़ करने वाले जान लें कि कंचुकी बिकनी से भी छोटा अंग वस्त्र होता है. भगवान के किसी भी अवतार ने औरतों के कपडों के तरीके पर तो ऐतराज़ नहीं किया. सीता हरण के बाद जंगल से मिले जेवर जब भगवान राम ने बजरंग बली को दिखाए और पूछा कि हनुमान, क्या तुम सीता के जेवर पहचानते हो? तो बजरंग बली ने कहा प्रभु, मैंने तो माता सीता के पैरों को ही देखा है, पैरों में पहनने वाला कोई जेवर हो तो पहचान लूँगा. हैरानी है कि बजरंग बली के नाम पर बनी बजरंग दल वाले लड़कियों के सारे बदन को जांच लेते हैं कि उसने ऊपर क्या पहना है और नीचे क्या? इन्हें भी टाईट किए जाने कि जरूरत है..लड़कियां ही करेंगी किसी दिन इन गुंडा राज चलाने वालों को टाईट. टाईट जींस के नीचे जो हील वाले टाईट जूते हैं न, वह ही राज चलाने वालो को भी ठीक करेंगे...one tight slap and MTV bolti band..!!! मुझे एक दोस्त की बात याद आ गयी जो कहता है कि जो जिस जुबान में समझता हो, उसे उसी जुबां में समझाना चाहिए, इस लिए इन राम सेना और बजरंग दल वालों को आजकल की भाषा में रामायण समझानी चाहिए....उदाहरण लीजिये....श्री राम के वनवास जाने के बाद जब भरत अयोध्या लौटे तो पाया की भाई साहब तो जंगल में चले गए हैं रहने..वे राम जी को मनाकर लाने गए. भरत बोले-भाई साहब, आप वापस चलिए, राम जी बोले-भरत, तुम जाओ, और राज करो...और सुनो, यह मेरे जूते ले जाओ. क्योंकि आज कल जूते के बिना 'राज' नहीं चलता....!!! (नोट: कृपा ध्यान दें, भगवान् राम जी का इशारा 'राज' ठाकरे की तरफ़ नहीं था...!!!)

आओ, करोड़पति कुत्ते का नाम बदलें....!!!

दोस्तों, चंडीगढ़ में कल कुत्ता-प्रदर्शनी यानी 'डॉग-शो' लगी थी. कई नस्ल और किस्म के कुत्ते आए थे हिस्सा लेने क लिए. लेकिन सब में एक बात समान थी और वो यह कि उनमें से कोई भी 'स्लमडॉग' नहीं था और उन सभी के मालिक 'करोड़पति' थे. एक कुत्ता तो ऐसा भी था जिसकी कीमत साथ लाख बताई गयी जो लगभग करोड़ रुपये के करीब है. जाहिर हैं कुत्ते को चुरा ले जाने वाला भी करोड़पति बन जायेगा. खैर, मॉडल और एक्टर गुल पनाग भी वहां आई हुई थी. जिस बात ने मेरा ध्यान खींचा वह था उसके कुत्ते का नाम ऑस्कर है. ऑस्कर से मुझे तुरन्त याद आया कि हमारे यहाँ की झुग्गी-बस्ती का एक कुत्ता इन दिनों करोड़पति बन गया है और 'ऑस्कर' पुरस्कार में भी सबसे आगे पहुँच गया है. इसमें क्या बड़ी बात है? हमारे यहाँ तो कुत्तों के नाम ही ऑस्कर हैं...!! नाम से याद आया कि पिछले दिनों एक बड़ा विवाद यह भी सुर्खियों में रहा कि आमिर खान के कुत्ते का नाम शाहरुख़ खान है. इसका मतलब आमिर साहब भी टॉप लेवल के कुत्तों के शौकीन हैं. नाम बड़ी चीज़ है. स्लम डॉग मिलिनेयर फ़िल्म ने हिंदुस्तान का नाम ऑस्कर तक पहुँचा दिया और लोग हैं कि झुग्गी-बस्ती के कुत्तों के नाम खराब करने का रोना रो रहे हैं. मुंबई झुग्गी बस्ती में रहने वालों ने मोर्चा खोल दिया कि फ़िल्म ने उनकी इज्ज़त मिट्टी में मिला दी. झुग्गी बस्ती के कुत्ते भी अब उनकी इज्ज़त नहीं करते. उन्होंने मांग कि कि फ़िल्म का नाम बदलो. नहीं हुआ. ऑस्कर पाने वालों ने कहा-अज्जी, छोडो भी. कुत्ते तो भोंकते रहते हैं. आप गाना सुनिए. इनका क्या है? कल को बोलेंगे एचऍमवी का निशान बदल दो..उसमें भी कुत्ता बैठा है ग्रामोफोन के सामने. कुत्ते का नाम बदलने से ही यह भी याद आया कि मेरा एक दोस्त था सर्वमीत सिंह. पत्रकार था. स्पष्टवादी और बेबाक. . सभी अच्छे लोगों कि तरह वह भी जल्दी चला गया इस दुनिया से. एक बार उसने मुझे बताया कि रात को खाना खाने के बाद जब वह सैर करने निकला तो उसे एक महिला मिली जो अपने तीन साल के बच्चे को घुमा रही थी. बच्चे ने गली के एक कुत्ते को देखा और बोला- मम्मी, देखो कुत्ता..!! महिला बोली-नो, बेटा वो डोग्गी है. बच्चे ने फ़िर अपनी भाषा में बोलने कि जिद की कि- मम्मी, वो कुत्ता है. महिला नहीं चाहती थी कि उसका बेटा कुत्ते को कुत्ता कहे. सर्वमीत से रहा नहीं गया. बच्चे से बोला-बेटा, तू मुझे कुत्ता कह ले, पर उसको डोग्गी ही बोल दे. अब यह बताने कि जरूरत नहीं कि महिला ने सरदार जी के साथ क्या किया होगा. खैर, नाम और बदलने कि मांग से जुड़ी एक ख़बर ने हमारे शौकत मियाँ को काफ़ी तकलीफ दी है. सलून वालों ने 'बिल्लू बारबर' फ़िल्म का नाम बदलने कि मांग रख दी. और हैरानी तो यह है कि नाम तुंरत ही बदल दिया गया. और तो और शाहरुख़ खान ने माफ़ी भी मांग ली. उन्हें पता है ये कोई साधारण नाई नहीं हैं. पेज 3 पर छपने वाले लोग हैं. अंग्रेज़ी बोलने वाले, सिल्विया जैसे, लन्दन से बाल काटने कि ट्रेनिंग लेकर आने वाले. दो दिन के लिए भी हड़ताल पर चले गए तो पेज 3 की सारी पार्टियों का भट्ठा बैठ जाएगा. शौकत मियाँ का कहना है-मिया, हमें चालीस साल हो गए लोगों की हजामत बनाते हुए. रहे फ़िर भी नाई के नाई. एक मौका मिल रहा था नाई से बारबर बनने का..साले, वो भी ले गए. नाम की महिमा के बारे में मैं ज्यादा नहीं कहूँगा. सिर्फ़ उतनी बात जो मेरे इर्द-गिर्द हो रही है. ऋतू चौधरी के महिमा बनने की कहानी कहने पर गया तो युसूफ साहब से दिलीप कुमार बनने और ऐ.आर. दिलीप कुमार से ऐ.आर. रहमान बनने और करोड़पतियों के कुत्तों का नाम ऑस्कर रखे जाने की बात भी कहनी पड़ेगी. मैं एक ऐसे परिवार की बात जरूर करूँगा जिन्होंने अपनी बेटी का नाम इतना सटीक रखा है कि हैरानी होती है. अंकल जी पंजाब से हैं और आंटी जी हरियाणा से. घर में बेटी हुई तो नाम सोचा जाने लगा. फ़िर दोनों ने मिलकर नाम रखा 'परियाना'-पंजाब और हरियाणा को मिलाकर. अंकल ने दोनों राज्यों को मिला दिया और आंटी ने इसका मतलब निकाला-परी का आना. शायद हमारे पॉलिटिकल लीडर और लड़कियों को गर्भ में मार देने वाले भी सबक ले लें परियाना से. नाम रखने और बदल लेने का भी रिवाज़ आजकल चल रहा है. लोग तो मानते हैं कि इसकी शुरुआत करीना कपूर कि बहन करिश्मा कपूर ने कि थी जिसने अपना नाम बदल कर मोटर सायिकल जैसा कर लिया था-करिज्मा..!! उसके बाद बॉलीवुड में फैशन चल पड़ा. मुझे याद आता है करीब बीस साल पहले मैंने किसी के घर के आगे लगी नेम प्लेट देखि थी जिसमे kapoor की जगह capoor लिखा था. मैं कई साल तक सोचता रहा की शायद स्पेलिंग ग़लत हो गए है. अब हालत ऐसे हैं कि किसी ने दो 'ऐ' लगा लिए हैं किसी ने दो 'बी'. मेरे दोस्त आदित्य के ऑफिस में काम करने वाली एक लड़की ने अपने नाम प्रियंका में 'एच' लगा लिया है. उसे विश्वास है कि उसका नया नाम करिज्मा करेगा. देखते हैं. बाकी, एक बात और बता देता हूँ जो मुझे अभी अभी याद आई है. मुझे जानने वाले एक सज्जन ने बताया कि उसने तीन कुत्ते पाल रखे हैं, जबकि उसके पिता कहते हैं कि उनके घर में चार कुत्ते हैं. शेरू, टॉमी, बाक्सर के अलावा चौथा कौन??? चौथा जोनी-यानी मैं...!!! मुझे नाम बदल लेना चाहिए यार..! कोई जानता है क्या नुमेरोलोजिस्ट???

thats the guy...!!! wow...!!

Contributed by: Sasidhar N. Reddy (sasi@netcad.enet.dec.com)This is the essay on "Cow" which was (supposedly) written by some student in the course of completing the "Indian Civil Services Examination" :-) I bet you will enjoy this. Sachi PS : There are no typos in this essay. Everything is legal and as it was written in the exam.If you develop cramps reading this or find your English gone haywire after reading this, please dont blame me :-) ___________________________________________________________________________ CALCUTTA's Telegraph has got hold of an answer paper of a candidate at the recent UPSC examinations. The candidate has written an essay on the Indian cow: "The cow is a successful animal. Also he is quadrupud, and because he is female, he give milk,but will do so when he is got child.He is same like God,sacred to Hindus and useful to man.But he has got four legs together. Two are forward and two are afterwards. "His whole body can be utilised for use. More so the milk. What can it do? Various ghee, butter,cream, curd, why and the condensed milk and so forth. Also he is useful to cobbler, watermans and mankind generally. "His motion is slow only because he is of asitudinious species. Also his other motion is much useful to trees, plants as well as making flat cakes in hand and drying in the sun. Cow is the only animal that extricates his feeding after eating. Then afterwards she chew with his teeth whom are situated in the inside of the mouth. He is incessantly in the meadows in the grass. "His only attacking and defending organ is the horn, specially so when he is got child. This is done by knowing his head whereby he causes the weapons to be paralleled to the ground of the earth and instantly proceed with great velocity forwards. "He has got tails also, but not like similar animals. It has hairs on the other end of the other side. This is done to frighten away the flies which alight on his cohoa body whereupon he gives hit with it. The palms of his feet are soft unto the touch. So the grasses head is not crushed. At night time have poses by looking down on the ground and he shouts his eyes like his relatives, the horse does not do so. "This is the cow." P.S.: We are informed that the candidate passed the exam.

wow guys...!!! उर्फ़ भाँ..भाँ गाय..!!!

दोस्तों, गाय के बारे में पढने के बाद मुझे मेरे कई मित्रों ने गाय से सम्बंधित और भी कई रोचक जानकारी उपलब्ध कराई हैं. आपके लिए भी पेश है.
पहली जानकारी तो यह कि गाय की किस्म का नाम सरहाली नहीं, साहिवाल है. यह किस्म का मूल पंजाब के दोआबा इलाके से है. इसका आकार बड़ा होता है और यह सफ़ेद रंग की होती है. राठी या राठा किस्म की गाय भी हरियाणा में पाई जाती है और मूलतया यह राजस्थान की किस्म है. मेरे बॉस ने मेरी जानकारी में यह बढोतरी भी की कि नागोर किस्म की गाय की एक किस्म ऐसी है जो सिर्फ़ राजस्थान के नागोर इलाके में होती है और वहाँ के लोग इसके प्रति इतने भावुक हैं कि वे इसे नागोर जिले से बाहर नहीं जाने देते. उन्हें शायद यह डर है कि कहीं उनकी गाय कि नस्ल ख़राब न हो जाए. इसका शरीर छोटा होता है और रंग भूरा या हल्का लाल.
वैसे गायों के बारे में जो बात मुझे पता चली वो यह कि गूगल पर इंडियन काऊ लिखकर सर्च करने पर 93 लाख लिंक खुल जाते हैं. इनमें से एक 'लव फॉर काऊ' नाम कि साईट भी है जो बताती है कि दिल्ली के ईस्ट ऑफ़ कैलाश इलाके में आशा स्वामी नाम की एक महिला हैं जो गायों के लिए एक ट्रस्ट चलाती हैं. उनकी एक मैगजीन भी है 'द इंडियन काऊ जर्नल' के नाम से. मुझे ऐसा भी याद आया कि किसी अखबार में ख़बर छपी थी कि देश की आज़ादी के समय देश में 40 करोड़ गायें थी जो या तो गौकशी का शिकार हो गयी या कचरे के ढेर में खाना ढूढ़ने के चक्कर में पालीथीन खा गयी और दम घुटकर मर गयी या पेट के कैंसर का शिकार हो गयी. अब देश में सिर्फ़ दस करोड़ गायें बची हैं. यह दस करोड़ गायें कब तक बचेंगी, कहा नहीं जा सकता क्योंकि कुछ लोग गाय के दूध में अधिक प्रोटीन होने का तर्क देकर इसके हानिकारक होने का प्रचार कर रहे हैं. उनका कहना है कि सिर्फ़ इंसान ही एक ऐसा जीव है जो व्यस्क होने पर भी दूध पीटा है. बाकी सभी जानवरों के बच्चे बड़े होने पर दूध पीना छोड़ देते हैं. तो अगर यह तर्क लोगों के दिमाग में घर कर गया तो लोग गाय का दूध पीना छोड़ देंगे और अगर गाय का दूध पीना ही नहीं तो उसे रखने का तो सवाल ही नहीं. अब तो दुनिया में इतना स्वार्थ हो गया है कि अगर काम नहीं आ रहे हों तो लोग माँ-बाप को भी घर से निकाल देते हैं. ये तो बेजुबान जानवर ठहरी. लोग गाय का दूध छोड़कर सोया मिल्क पीना शुरू कर देंगे. गाय कि जरूरत ख़त्म. फ़िर सोया मिल्क से पैदा होने वाली बीमारियों के बारे में बातें सामने आएँगी. फ़िर उसका इलाज़ ढूंढेंगे.
इसी संदर्भ में मेरे एक एनआरआई दोस्त ने दो बातें बतायी. पता नहीं उनमे सच्चाई कितनी है लेकिन जिस शिद्दत से उसने कहा मुझे दोनों बातों में कोई सम्बन्ध ढूंढ़ना पड़ा. उसने बताया कि अमेरिका की किसी यूनिवर्सिटी में एक रिसर्च हुई है कि गाय की पीठ पर रोज़ हाथ फेर कर उसे दुलारने से हार्ट अटैक का खतरा नहीं होता. किस यूनिवर्सिटी में ऐसी रिसर्च हुयी है, यह उसे याद नहीं आया, लेकिन मेरे तर्क करने पर जब वो मुझसे लड़ने पर उतारू होगया तो मुझे उसकी बात माननी पड़ी. हो सकता है उसकी बात में दम हो, क्योंकि पहले गाँवों में गाय हुआ करती थी, लोग गाय को रोटी खिलाकर उसकी पीठ पर हाथ फेरा करते थे. शायद इसलिए हार्ट अटैक तो शहरी बीमारी कहा जाता था. अब गावों में गायें कम हो गयी हैं, हार्ट अटैक वहां भी पहुँच गया है. उसकी दूदरी बात भी भारतीय धर्म और अध्यात्म से जुड़ी हुयी है. उसने बताया कि अमेरिका में 'मैड काऊ' ननम कि बीमारी फैली थी. लोगों ने कहा कि गाय का मीट खाने वालों को होती है. मेरे दोस्त का तर्क है कि गाय धर्म से जुदा एक जानवर है. उसे अपनी मौत का अंदाजा पहले ही हो जाता है. इसलिए जब गायों को बुचडखाने ले जाया जाता है तो उस से पहले ही उसे अहसास हो जाता है. इस दौरान उसके शरीर से जो हारमोन निकलता है उसके कारण ही उसके मीट को खाने वालों को 'मैड काऊ' बीमारी हो जाती है. पता नहीं, लेकिन एक बात मुझे याद है जो मैंने एक धर्म ग्रन्थ में पढ़ी थी कि गाय को पवित्र और इंसान के नज़दीक क्यों मानते हैं? इसका कारण लिखा था कि हिन्धू धर्म के मुताबिक 84 लाख योनियाँ पार करने के बाद आखिरी योनी गाय कि होती है, और इस योनी में उसकी समझ और इन्द्रियाँ इंसान जैसी हो जाती हैं. गाय का जन्म पूरा करने के बाद अगला जन्म इंसान का होता है. अगर हम गाय को मारते हैं तो हम उसके इंसान के रोप में जन्म लेने का एक मौका उस से छीन लेते हैं. और उसे सभी 84 लाख योनियाँ फ़िर से पार करनी पड़ती हैं. जाहिर है, इंसान बनने के इतने करीब पहुंचे एक जीव को अगर खाने के लिए मारा जाए तो उसके भीतर का दुःख हारमोन बनकर ही निकलेगा और दुःख, क्षोभ और लाचारी के हारमोन लस 'काऊ' 'मैड' नहीं होगी तो क्या होगी? क्यों गायेस????

hi guys..!!! उर्फ़ हाय गाय...!!!

बीते कल मेरे बॉस ने जब हरियाणा में गायों की किस्मों की बात की तो अचानक मुझे लगा की इस शहर में रहते हुए यह भूल ही गया हूँ कि गौओं के साथ एक उमर में मैं भी रहा हूँ. उस गाँव में जहाँ तालाब पर गायों और इंसानों के नहाने की कोई अलग व्यवस्था नहीं थी. मैंने भी गायों के साथ उसी तालाब में नहाना और तैरना सीखा है. तब मैं गायों को उनकी किस्मों से नहीं, उनके नामों से पहचान लेता था. अब उनकी किस्मों का फर्क भी नहीं याद. हरियाणवी, राठी और सरहाली...ये तीन किस्में हैं गायों की. मुझे नहीं याद था. मेरे बॉस ने बताया. पूछना चाहता था की इनकी पहचान क्या है, लेकिन नहीं पूछा. यह सोचकर की मैं ख़ुद को गाँव से जुड़ा होने का दावा करता रहता हूँ. खासकर चंडीगढ़ की इस आबादी के सामने जिसके लिए गायें आवारा घूमने वाला एक जानवर है. इस आबादी के लिए गायें सडकों को गंदा करने और शायद मन्दिर वाले पंडित जी के कहने पर उपाय करने के काम आने के अलावा और किसी काम नहीं आती. मुझे याद आता है कैसे बचपन में मेरी माँ ने मुझे इक्कीस दिन तक गो-मूत्र पिलाया था, शायद इस उम्मीद में कि मैं गायों कि किस्में याद रखूंगा. अभी पिछले दिनों बाबा रामदेव के एक चेले ने मुझे गो-मूत्र और शहद की बोतल भेंट की इस उम्मीद के साथ कि एक महीना गो-मूत्र पीकर मेरा ब्लड प्रेशर ठीक हो जाएगा और छोटी-मोटी खारिश-खुजली भी जाती रहेगी. लेकिन सच यह है मैं गो-मूत्र की बोतल खोल ही नहीं सका. ऐसे ही रखी है दो महीने से. वक्त ने गायों कि किस्मों के साथ लोगों कि किस्में भी भुला दी हैं. अब सब एक किस्म के हैं...शहर और गाँव भी एक ही किस्म के हो गए हैं और गायें भी शहरी किस्म की. कूड़ेदान के पास मुंह मारती. हरा चारा तो बुधवार के दिन ही मिलता है. चोपडा साहिब की बेटी को बता रखा है तेईस सेक्टर में रहने वाले पंडित जी ने कि बुधवार को वजन के बराबर हरा चारा गौउओं को खिला देना अपने हाथ से...पेपर में पास को जायेगी और हेल्थ भी ठीक रहेगी. बाकी दिन तो चोपडा साहिब की वाइफ गेट के बाहर का पूरा ध्यान रखती हैं. गायें फूल खा जाती हैं. माली रखा हुआ है फूलों के लिए. बेटी सोमवार का वर्त रखती है, उसे मन्दिर में चढाने होते हैं सफ़ेद फूल. इस लिए लगाये हैं, गायों को खिलाने के लिए थोड़े ही. गायें तो कुछ भी खा लेती हैं. हमें उनसे क्या लेना. बेटी तो दूध पीती नहीं. हम दो जन हैं, वेरका के पैकेट ले लेते हैं. गायों का दूध हमें तो नहीं अच्छा लगता तो गायें को लगें अच्छी. खैर, मैं उन गायों की बात करने रहा था जिन्हें मैंने अपने गाँव में देखा था. घर के चूल्हे पर बनने वाली पहली रोटी पर जिनका पहला हक होता था और दूसरी पर गली में एक एक बच्चे की पहचान रखने वाले कुत्ते का. अब न तो गावों में चूल्हे रहे और न चूल्हों पर रोटी बनाने वाली माएं. और न यह याद रखने वाली औरतें की पहली रोटी गाय के लिए है...क्योंकि गावों में भी अब गायें नहीं रही. गावं की आत्मा को जिंदा रखने वाली बूढी औरतें देने के लिए गायों को ढूँढती हैं. जब गावों में गायों का यह हाल है तो शहरों में कैसा होगा? मेरे एक दोस्त ने कहा अजीब बात है, शहरों में गायें अचानक बढ़ गयी हैं? मैंने हैरानी से पूछा कैसे? तो उसका जवाब था अब शहरों में लड़के नहीं हैं, अब गाये हैं. एक दूसरे को गाये कहते हैं....hi guys..!!!!