UA-44034069-1

Thursday, September 3, 2009

कहते तो सही हो, डाक्टर अनुराग...!!!

डाक्टर अनुराग सही कहते हैं, दुखों के जेरोक्स मशीन की वसीयत औरतों के नाम न सही, लेकिन उस वसीयत की एक-एक फोटोकॉपी हरेक औरत के पास है.
बुलंदशहर के पास एक कसबे जेवर में जाना हुआ जहाँ एक दोस्त गायनेकोलोगिस्ट है. हैरानि होती रही दिन भर ओपीडी में बैठे हुए. उम्र 20 साल, नौ महीने का गर्भ, मल्टी ग्राविडा, एचबी सिर्फ 5 ग्राम और इंशाअल्लाह रोजे रखे हुए हैं. डाक्टर कहती है रोजा नहीं रखो, मर जाओगी. साथ आयी सास कहती है-यों न होने का डाक्टर साहिब. साल भहर में एक दफा तो रमदान का महीना आवे है. सालभर खाना ही होवे फिर. सही है, सास-बहु दोनों के पास पक्के तौर पर दुखों के जेरोक्स कापी है.
और यह जो औरत आज दाखिल हुयी है, इसके पास तो वसीयत की रजिस्ट्री भी है. उम्र कोई बीस साल, पेशा मजदूरी. पहला बच्चा, झुग्गी में ही किसी दाईनुमा औरत ने उस वसीयत की कापी इस औरत को भी सौंप कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी.
बच्चा तो पैदा करवा दिया पर कुछ हिस्सा भीतर छूट गया जिसे हम मेडिकल वाले रिटेनड प्लेसेंटा कहते हैं. सड़क पर मजदूरी करने वाला शौहर हेवी ब्लीडिंग और कन्वेलसेंस की हालत में लेकर अस्पताल पहुंचा. खुद भी बदहवासी में. मरीज की हालत खुद ही गरीबी बयां कर रही थी और उसके शौहर ही हालत उसक मजबूरी और बेबसी की. उसके पास एक भी पैसा नहं था इलाज़ के लिए. कुछ घंटों पहले पैदा हुयी नन्ही सी जान को हाथों में लिए वह डाक्टर संजना के सामने उस औरत को किसी भी तरह बचा लेने के लिए गिडगिडा रहा था.
ऐसे मरीज भी शायद ऐसे ही कमजोर दिल डाक्टरों का पता भगवान् से ही पूछ कर आते हैं, जो हाथ जोड़कर नीच फर्श पर बैठ जाने वाले गरीब मरीज को देखकर डिग्री लेते हुए खाई 'हिप्पोक्रेटिक ओथ' को हनुमान चालिषा की तरह दोहराने लग जाते हैं.
मै देखता हूँ डाक्टर संजना बेबसी की जुबां पढ़ रही है. जल्दी से ब्लड सैम्पल लिया गया. जांच रिपोर्ट आ गयी है. टायफायड, मलेरिया पाजिटिव और एचबी सिर्फ चार ग्राम. घंटे भर की मेहनत के बाद मरीज़ औरत कुछ शांत लगी. हम लोग ओपीडी के बाद चाय पीने बैठे ही हैं कि फिमेल वार्ड की नर्स भागी आयी-डाक्टर साहिब, पांच नंबर वाली कि पल्स नहीं मिल रही. भागकर गए तब तक मौत बाज़ी ले जा चुकी थी. नन्हीं जान ने मां के शरीर की छुअन भी नहीं महसूस की थी और मां बच्ची को सीने से भी नहीं लगा सकी. माहौल ग़मगीन पहले ही था कि अचानक किसी पुरानी हिंदी फिल्म में बाप का किरदार निभाने वाले नासीर खान जैसा गरीब बूढा कमरे में दाखिल हुआ और दुधमुन्हीं बच्ची को चूमते हुए सिसकते आदमी के सामने हाथ खोलकर खडा हो गया. कहीं से कुछ हज़ार रूपये मांगकर लाया था उसका बाप. 'बेटा, देर हो गयी क्या आने में मुझे?'

12 comments:

  1. बहुत ही मार्मिक दृष्य प्रस्तुत किया है। साफ बताती हैं कि दो दुनियाएँ हैं दुनिया में। और यह भी कि जीवन कितना ही दुष्कर क्यों न हो अपने पुनरुत्पादन के कर्तव्य को हर हालत में पूरा करता है। उस पर मनुष्य का पूरा नियंत्रण नहीं। कब मनुष्य अपने इन हालातों पर काबू पा सकेगा?

    और डाक्टर साहब अपने इस ब्लाग पर से वर्ड वेरीफिकेशन तो हटा ही लें टिप्पणी कर्ता के लिए बैरियर क्यों?

    ReplyDelete
  2. ओह! क्या कह सकती हूँ? शायद दुखों की भी लॉटरी लगती है। फिर भी मनुष्य भगवान में विश्वास करता है?
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  3. 'देवकियाँ' हर जगह पीड़ित हैं - राजमहल, जेल, झुग्गी, गाँव, क़स्बा . . . ।
    अवतारों को फुरसत नहीं मिलती इनकी सुध लेने को या कुछ करने को कि दु:खों की मशीनें चलनी बन्द हो जाँय।

    ReplyDelete
  4. bahut hi marmik prastuti...kab badlegi ye dasha...

    ********************************
    प्रत्येक बुधवार सुबह 9.00 बजे बनिए
    चैम्पियन C.M. Quiz में |
    ********************************
    क्रियेटिव मंच

    ReplyDelete
  5. डॉक्टर रवि। आप लगातार लिखते रहिए। और, इस पर कुछ लिखने का मेरा साहस नहीं है। कोशिश ये भी कीजिए कि इस तरह के किस्से लिखते अगर कुछ कम भी करने में सहायक हों तो, ...

    ReplyDelete
  6. बहुत मार्मिक प्रस्तुति लगी, डाक्टर साहब.
    आप लगातार लिखते रहिये।

    ReplyDelete
  7. जब लोग कहते है दुनिया बदल रही है ...तो लगता है दुनिया के कई हिस्से है ..कुछ किलोमीटर के फासले से ही दुनिया बदल जाती है .....जब अस्सी साल के बूढे पति का हाथ थामे एक बुजुर्ग महिला जेब में अस्सी रुपये रख आपको दिखाने आती है ......हर्पिस से तड़पते उस आदमी को देख आप इस कशमकश में पड़ते है की उसे क्या लिखे क्यूंकि इस बीमारी की सस्ती दवाई आती नहीं .......सत्तर रुपये दिहाडी कमाने वाला आपसे दस साल बड़ा मजदूर सेम्पल की एक ट्यूब देने पर जब आपके पैर छूने की कोशिश करता है .....तो आप अचकचा जाते है ...
    ये सब इसी दुनिया का हिस्सा है ..किसी आर्ट फिल्म की उबाऊ स्टोरी नहीं.....रोज रोज लिजलिजे दुःख देखकर आत्मा इम्यून होने लगती है ....रिग्रेस भी .....ब्लोगिंग के व्यसन में डूबे कुछ लोगो के लिए ये एक बढ़िया लिटरेरी स्टोरी हो सकती है या समझदार और ज्ञानी लोग इसे अति भावुकता का शिकार किसी डॉ का बेवजह का प्रलाप कहकर खारिज भी कर सकते है ....पर सच यही है .हमने अपने अपने दुःख को भी क्लासिफाई कर रखा है ....इस तरह के छोटी मोटी घटनाएं तो कई जगह दुःख की टेबुल में आती नहीं ....
    जिंदगी रोज अपने तजुरबो से भरा एक दिन हथेली में रोज रख देती है .......आपके पास ऐसे कितने दिन जमा होते जा रहे है .....होते जा रहे है .......

    ReplyDelete
  8. यह दुनिया दुखों की गठरी है और मनुष्य वह गठरी ढोने को अभिशप्त...।

    यदा-कदा पीठ पर से गठरी उतारकर सुस्ता लेने की मोहलत मिल जाय तो जिन्दगी अच्छी लगने लगती है।

    अजीब शय है यह इन्सान भी।

    ReplyDelete
  9. manjil ki taalash mein bhatakte logoo ko kya maalum ki vo maut ke intzaar mein hai, humne to dekha raasta hi bahut kuch seekha ke jata aata rehta hai...dard kaayam rahe...taruni..

    ReplyDelete
  10. आपने बहुत ही मार्मिक दृष्य प्रस्तुत किया है

    ReplyDelete