UA-44034069-1

Monday, February 23, 2009

hi guys..!!! उर्फ़ हाय गाय...!!!

बीते कल मेरे बॉस ने जब हरियाणा में गायों की किस्मों की बात की तो अचानक मुझे लगा की इस शहर में रहते हुए यह भूल ही गया हूँ कि गौओं के साथ एक उमर में मैं भी रहा हूँ. उस गाँव में जहाँ तालाब पर गायों और इंसानों के नहाने की कोई अलग व्यवस्था नहीं थी. मैंने भी गायों के साथ उसी तालाब में नहाना और तैरना सीखा है. तब मैं गायों को उनकी किस्मों से नहीं, उनके नामों से पहचान लेता था. अब उनकी किस्मों का फर्क भी नहीं याद. हरियाणवी, राठी और सरहाली...ये तीन किस्में हैं गायों की. मुझे नहीं याद था. मेरे बॉस ने बताया. पूछना चाहता था की इनकी पहचान क्या है, लेकिन नहीं पूछा. यह सोचकर की मैं ख़ुद को गाँव से जुड़ा होने का दावा करता रहता हूँ. खासकर चंडीगढ़ की इस आबादी के सामने जिसके लिए गायें आवारा घूमने वाला एक जानवर है. इस आबादी के लिए गायें सडकों को गंदा करने और शायद मन्दिर वाले पंडित जी के कहने पर उपाय करने के काम आने के अलावा और किसी काम नहीं आती. मुझे याद आता है कैसे बचपन में मेरी माँ ने मुझे इक्कीस दिन तक गो-मूत्र पिलाया था, शायद इस उम्मीद में कि मैं गायों कि किस्में याद रखूंगा. अभी पिछले दिनों बाबा रामदेव के एक चेले ने मुझे गो-मूत्र और शहद की बोतल भेंट की इस उम्मीद के साथ कि एक महीना गो-मूत्र पीकर मेरा ब्लड प्रेशर ठीक हो जाएगा और छोटी-मोटी खारिश-खुजली भी जाती रहेगी. लेकिन सच यह है मैं गो-मूत्र की बोतल खोल ही नहीं सका. ऐसे ही रखी है दो महीने से. वक्त ने गायों कि किस्मों के साथ लोगों कि किस्में भी भुला दी हैं. अब सब एक किस्म के हैं...शहर और गाँव भी एक ही किस्म के हो गए हैं और गायें भी शहरी किस्म की. कूड़ेदान के पास मुंह मारती. हरा चारा तो बुधवार के दिन ही मिलता है. चोपडा साहिब की बेटी को बता रखा है तेईस सेक्टर में रहने वाले पंडित जी ने कि बुधवार को वजन के बराबर हरा चारा गौउओं को खिला देना अपने हाथ से...पेपर में पास को जायेगी और हेल्थ भी ठीक रहेगी. बाकी दिन तो चोपडा साहिब की वाइफ गेट के बाहर का पूरा ध्यान रखती हैं. गायें फूल खा जाती हैं. माली रखा हुआ है फूलों के लिए. बेटी सोमवार का वर्त रखती है, उसे मन्दिर में चढाने होते हैं सफ़ेद फूल. इस लिए लगाये हैं, गायों को खिलाने के लिए थोड़े ही. गायें तो कुछ भी खा लेती हैं. हमें उनसे क्या लेना. बेटी तो दूध पीती नहीं. हम दो जन हैं, वेरका के पैकेट ले लेते हैं. गायों का दूध हमें तो नहीं अच्छा लगता तो गायें को लगें अच्छी. खैर, मैं उन गायों की बात करने रहा था जिन्हें मैंने अपने गाँव में देखा था. घर के चूल्हे पर बनने वाली पहली रोटी पर जिनका पहला हक होता था और दूसरी पर गली में एक एक बच्चे की पहचान रखने वाले कुत्ते का. अब न तो गावों में चूल्हे रहे और न चूल्हों पर रोटी बनाने वाली माएं. और न यह याद रखने वाली औरतें की पहली रोटी गाय के लिए है...क्योंकि गावों में भी अब गायें नहीं रही. गावं की आत्मा को जिंदा रखने वाली बूढी औरतें देने के लिए गायों को ढूँढती हैं. जब गावों में गायों का यह हाल है तो शहरों में कैसा होगा? मेरे एक दोस्त ने कहा अजीब बात है, शहरों में गायें अचानक बढ़ गयी हैं? मैंने हैरानी से पूछा कैसे? तो उसका जवाब था अब शहरों में लड़के नहीं हैं, अब गाये हैं. एक दूसरे को गाये कहते हैं....hi guys..!!!!

No comments:

Post a Comment