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Monday, February 23, 2009

wow guys...!!! उर्फ़ भाँ..भाँ गाय..!!!

दोस्तों, गाय के बारे में पढने के बाद मुझे मेरे कई मित्रों ने गाय से सम्बंधित और भी कई रोचक जानकारी उपलब्ध कराई हैं. आपके लिए भी पेश है.
पहली जानकारी तो यह कि गाय की किस्म का नाम सरहाली नहीं, साहिवाल है. यह किस्म का मूल पंजाब के दोआबा इलाके से है. इसका आकार बड़ा होता है और यह सफ़ेद रंग की होती है. राठी या राठा किस्म की गाय भी हरियाणा में पाई जाती है और मूलतया यह राजस्थान की किस्म है. मेरे बॉस ने मेरी जानकारी में यह बढोतरी भी की कि नागोर किस्म की गाय की एक किस्म ऐसी है जो सिर्फ़ राजस्थान के नागोर इलाके में होती है और वहाँ के लोग इसके प्रति इतने भावुक हैं कि वे इसे नागोर जिले से बाहर नहीं जाने देते. उन्हें शायद यह डर है कि कहीं उनकी गाय कि नस्ल ख़राब न हो जाए. इसका शरीर छोटा होता है और रंग भूरा या हल्का लाल.
वैसे गायों के बारे में जो बात मुझे पता चली वो यह कि गूगल पर इंडियन काऊ लिखकर सर्च करने पर 93 लाख लिंक खुल जाते हैं. इनमें से एक 'लव फॉर काऊ' नाम कि साईट भी है जो बताती है कि दिल्ली के ईस्ट ऑफ़ कैलाश इलाके में आशा स्वामी नाम की एक महिला हैं जो गायों के लिए एक ट्रस्ट चलाती हैं. उनकी एक मैगजीन भी है 'द इंडियन काऊ जर्नल' के नाम से. मुझे ऐसा भी याद आया कि किसी अखबार में ख़बर छपी थी कि देश की आज़ादी के समय देश में 40 करोड़ गायें थी जो या तो गौकशी का शिकार हो गयी या कचरे के ढेर में खाना ढूढ़ने के चक्कर में पालीथीन खा गयी और दम घुटकर मर गयी या पेट के कैंसर का शिकार हो गयी. अब देश में सिर्फ़ दस करोड़ गायें बची हैं. यह दस करोड़ गायें कब तक बचेंगी, कहा नहीं जा सकता क्योंकि कुछ लोग गाय के दूध में अधिक प्रोटीन होने का तर्क देकर इसके हानिकारक होने का प्रचार कर रहे हैं. उनका कहना है कि सिर्फ़ इंसान ही एक ऐसा जीव है जो व्यस्क होने पर भी दूध पीटा है. बाकी सभी जानवरों के बच्चे बड़े होने पर दूध पीना छोड़ देते हैं. तो अगर यह तर्क लोगों के दिमाग में घर कर गया तो लोग गाय का दूध पीना छोड़ देंगे और अगर गाय का दूध पीना ही नहीं तो उसे रखने का तो सवाल ही नहीं. अब तो दुनिया में इतना स्वार्थ हो गया है कि अगर काम नहीं आ रहे हों तो लोग माँ-बाप को भी घर से निकाल देते हैं. ये तो बेजुबान जानवर ठहरी. लोग गाय का दूध छोड़कर सोया मिल्क पीना शुरू कर देंगे. गाय कि जरूरत ख़त्म. फ़िर सोया मिल्क से पैदा होने वाली बीमारियों के बारे में बातें सामने आएँगी. फ़िर उसका इलाज़ ढूंढेंगे.
इसी संदर्भ में मेरे एक एनआरआई दोस्त ने दो बातें बतायी. पता नहीं उनमे सच्चाई कितनी है लेकिन जिस शिद्दत से उसने कहा मुझे दोनों बातों में कोई सम्बन्ध ढूंढ़ना पड़ा. उसने बताया कि अमेरिका की किसी यूनिवर्सिटी में एक रिसर्च हुई है कि गाय की पीठ पर रोज़ हाथ फेर कर उसे दुलारने से हार्ट अटैक का खतरा नहीं होता. किस यूनिवर्सिटी में ऐसी रिसर्च हुयी है, यह उसे याद नहीं आया, लेकिन मेरे तर्क करने पर जब वो मुझसे लड़ने पर उतारू होगया तो मुझे उसकी बात माननी पड़ी. हो सकता है उसकी बात में दम हो, क्योंकि पहले गाँवों में गाय हुआ करती थी, लोग गाय को रोटी खिलाकर उसकी पीठ पर हाथ फेरा करते थे. शायद इसलिए हार्ट अटैक तो शहरी बीमारी कहा जाता था. अब गावों में गायें कम हो गयी हैं, हार्ट अटैक वहां भी पहुँच गया है. उसकी दूदरी बात भी भारतीय धर्म और अध्यात्म से जुड़ी हुयी है. उसने बताया कि अमेरिका में 'मैड काऊ' ननम कि बीमारी फैली थी. लोगों ने कहा कि गाय का मीट खाने वालों को होती है. मेरे दोस्त का तर्क है कि गाय धर्म से जुदा एक जानवर है. उसे अपनी मौत का अंदाजा पहले ही हो जाता है. इसलिए जब गायों को बुचडखाने ले जाया जाता है तो उस से पहले ही उसे अहसास हो जाता है. इस दौरान उसके शरीर से जो हारमोन निकलता है उसके कारण ही उसके मीट को खाने वालों को 'मैड काऊ' बीमारी हो जाती है. पता नहीं, लेकिन एक बात मुझे याद है जो मैंने एक धर्म ग्रन्थ में पढ़ी थी कि गाय को पवित्र और इंसान के नज़दीक क्यों मानते हैं? इसका कारण लिखा था कि हिन्धू धर्म के मुताबिक 84 लाख योनियाँ पार करने के बाद आखिरी योनी गाय कि होती है, और इस योनी में उसकी समझ और इन्द्रियाँ इंसान जैसी हो जाती हैं. गाय का जन्म पूरा करने के बाद अगला जन्म इंसान का होता है. अगर हम गाय को मारते हैं तो हम उसके इंसान के रोप में जन्म लेने का एक मौका उस से छीन लेते हैं. और उसे सभी 84 लाख योनियाँ फ़िर से पार करनी पड़ती हैं. जाहिर है, इंसान बनने के इतने करीब पहुंचे एक जीव को अगर खाने के लिए मारा जाए तो उसके भीतर का दुःख हारमोन बनकर ही निकलेगा और दुःख, क्षोभ और लाचारी के हारमोन लस 'काऊ' 'मैड' नहीं होगी तो क्या होगी? क्यों गायेस????

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